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________________ ૩૬ H ज्ञाताधर्मकथाजस्े 'पेट' उदरे 'कार्यसि' कार्य = शरीरे, एतषु सर्वेषु सवाद विज्ञयन्, अप्येके 'ओलंडेति' उल्लंघयन्ति एकवारं, अप्येके 'पोलंडेति' माघयन्ति वारंवारं अप्येके 'पायरयरेषु गुंडियं' पादरजे रेणुगुण्ठितं चरणधूलि जेन गुण्ठितम् संतिं कुर्वन्ति एवं महालियं च णं स्यणि' एव महत्यां च खलु रजन्यां मेघकुमारः 'णा संचाण्ड' नो शन्कोति 'खणमवि' क्षणमपि 'अच्छि' अक्षिनेत्रं 'निमीलित्तए' निमीलितुं = संयोजयितुम् । ततः खलु तस्य मेघकुमारस्य 'अयमेयात्वे' अयमेतम्पः 'अज्झत्थिए' आध्यात्मिकः=आत्मनि जायमानः 'जाव' यावदशन्देन 'चितिए पत्थिर कप्पिए मणेोगए संकप्पे' इत्येतेषां संग्रह:चिन्तितः प्रार्थितः कल्पितः, मनेागतः संकल्पः, तत्र चिन्तितः = एवं करणरूपेण और शरीर में संघट्टन हो जाता (अप्पेगइया ओलंर्डेति ) कितनेक उसके ऊपर से होकर निकल जाते (पोलेंडेंति) कितनेक बार बार उसके उपर मे निकल जाते । (अप्पेगइया पायरयरेणुमंडियं करेंति) कितनेक अपने पैरों की वृलि से उसे धूमरित कर देते । ( एवं महालिय चणं स्यणि मेहे कुमारे पो संचाes aणम अच्छि निमीलित्तए) इस प्रकार वह कुमार एक क्षण भी उस महती रात्रि में निद्राधीन नहीं बन सका (अएणं तस्स मेहस्स कुमारम्स अयमेयास्वे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था ) तब उस मेघकुमारको इस प्रकार का यह आध्यात्मिक, चिनिन, प्रार्थित, कल्पित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ । आध्यात्मिक शब्द का अर्थ आत्मा में हुआ ऐसा है । चिन्तित आदि जो ये संकल्प के और अन्य विशेषण यहाँ टीकाकारने लिखे वे सूत्र में यावत् शब्द से गृहीत किये हुए हैं । 'मैं इस प्रकार करूगा ' इस तरह जो ऐसा करूं इस रूप से हृदय में स्थापित किया जाता है वह - गडया ओलंडे ति ) सा तेने भोणगीने नीक्ष्णी न्ता ( पोलंडेति ) डेटसा वारंवारतेने भोगाने पर थाने पसार था हुता. ( अप्पेगडया पायन्यरेणरांडियं करेंति) डेंटला साधुयो तेने पोताना पगनी धूणथी भसिन १२ता हता. ( एवं महात्रियं चणं स्यणि मेहे कुमारे णो संचाएइ खणमवि अच्छिं निमीलित ) मा प्रभा भेधभार मे क्षषु पशु ते सांगी शत्रिभा निद्रावश नहि थ यो. (तएण तस्स मेहस्स कुमारम्म अयमेयारूये अज्झ तिथ जात्र ममुपज्जित्था त्योर पछी भेघकुमारने या प्रभाशे आध्यात्मिक, चिंतित, आर्थित, स्थित भने मनोगत सस्य (वियार ) उलव्यो - (आध्याઆત્મિક શબ્દના અર્થ આત્મામાં ઉત્પન્ન થયેલા એવા થાય છે. ચિંતિત વગેરે જે આ સંકલ્પને માટે બીજા વિશેષણા અહીં ટીકાકારે ટાંકયાં છે તે સૂત્રમાં ‘થાવત્’ શબ્દ દ્વારા ગૃહીત થયાં છે. હું આ પ્રમાણે કરીશ!' આ રીતે જે એમ કરુના
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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