SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 453
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगारधर्मामृतवर्षिटीका अ. १.स ३८ मेधकुमारदीक्षोत्सवनिरूपणम् तीतदुःखानुभवःप्रत्यक्ष एवेति कस्य हृदयं न भीपयति । 'से जहानामए' तद्यथानामकं यथादृष्टान्तं दृष्टान्तमनुसृत्य वयते इत्यर्थः, कोऽपि गाथापतिःधनसमृद्धो गृहस्थ अगारे 'अगारंसि झियायमाणसि' अगारे-गृहे ध्यायति धातूनामनेकार्थत्वात प्रज्वलिते सतीत्यर्थः 'जे' यत तत्थ तत्र 'भंडे भाण्डो भवति 'अप्पभारे' अल्पभारः , मोल्लगुरुए' मूल्यगुरुकः-बहुमूल्यः, तं गृहीत्वा 'आयाए' आत्मना-स्वयम् ‘एगतं' एकान्त निरूपद्रवस्थानं 'अवक्मह' अपक्रामति-गच्छति, एवं च चिन्तयति ‘एस मे णित्थारिए समाणे' एषःमूल्यगुरु को भाण्डः' मम निस्तारितःसन् 'पच्छा' पश्चात् भविष्यति काले, 'पुरा' विवक्षित कालात् पूर्वस्मिन् काले सततिपरम्पराया स्त्र सत्तायां चेत्यर्थः 'हियाए' डिताय जीवनादि निर्वाहजनकाय 'सुहाए' सुखाय भोगसंपाद्यानदोय 'खेमाए क्षेमाय समुचितमुखसमर्थाय 'णिम्सेयमाए' निश्रेयसाय भाग्योदयाय में माणोत्क्रमणकालिक दुरन्त अनन्त वेदनाओं से उद्भूत मूर्छा के सद्भाब से वर्णनातीत दुःखों का अनुभव इस जीव को प्रत्यक्ष में ही होता है-इस लिये यह जरा और मरण से आदीप्त एव प्रदीप्त हो रहा है। अतः इस तरह की इस की यह स्थिति किस समझदार प्राणी के हृदयकों भयान्वित नहीं करती है। (से जहानामए) इसी बात को दृष्टान्त द्वारा समर्थित किया जाता है-(कोई गाहावई अगारंसि झियायमाणंसिजे तस्थ मंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगुरुए तं गहाय आयाए एगतं अवक्कमइ) जैसे कोई धन समृद्ध गृहस्थ घर में आग लग जाने पर उम्में की अल्पभारवाली वस्तुओं को जिनकी कीमत बहुत भारी होती है लेकर स्वयं निरूपद्रव स्थान में चला जाता है और ऐसा विचार करता है (एस मे णिस्थारिए समाणे पच्छापुरा हियाए सुहाए खेमाए णिस्सेयसाए अणुग्गामियाएપ્રાણોન્જમણુ કાલિક દુરન્ત અનન્ત વેદનાઓથી, મૂચ્છવસ્થાથી, જેમનું વર્ણન પણ અશકય છે આવા દુખોને અનુભવ પ્રત્યક્ષ રૂપે થાય છે એટલા માટે આ જગત વૃદ્ધાવસ્થા અને મૃત્યુથી આદીત અને પ્રદીપ્ત થઈ રહ્યું છે. એથી એવી આ જગતની भय ४२ स्थिति ४या सम भाणुसना इत्यने ४ावी न भूई ( से जहानामए) मे पातने . दृष्टांत द्वारा बंधारे पुष्ट ४२वामा मावे छ. (केई गाहा वई अगा रंसि झियायमाणंसि जे तत्थ भ डे भवइ अप्पभारे मोल्लगुरुए त गहाय आयाए एगंतं अवक्कमइ ) म अ पैसापात्र समृद्ध डस्थ ५२ सा ત્યારે તેમાથી થોડા વજનવાળી ભારી કિમતી વસ્તુને લઈને પોતે નિરુપદ્રવે સ્થાનમા पहाय अने ते वियारे 3-(एस में णित्थारिए समाणे पच्छा पुरा हियाए सुहाए खेमाए णिस्सेयसाए अणुग्गामियाए भविस्सइ) मा भती वरतु भा।
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy