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________________ - अनगारधर्मामृतवर्पिणीटीका. अ.१ मू.२९ मातापितृभ्यां मेघकुमारस्य संवादः ३६१ यव चगमिव चारित्रं दुष्करमित्यर्थः, मिक्थकदन्तैः 'मेग-'भोम' इतिप्रसिद्धद्रव्यनिति दन्तै लोहमय चणक चर्वणमिव चारित्रपालनं दुष्करमिति भावः 'वालुया कवले इब निरस्साए' वालुका कवल इव निःसारकं वालुका ग्रास इव निगस्वादः-विपयास्वादवजितमित्यर्थः पुनः कीदृशं प्रवचनम् गंगा व महानदी पडिसोयगमणाए' गङ्गेव महानदी प्रतिस्रोतो गमनेन-प्रतिस्रोतसागमनेनप्रवाहाभिमुखगमनेन गङ्गेव दुस्तरं प्रवचन मनुपालयितुमित्यर्थः, अनुकूलपतिकूलपरीषहोपसर्गसम्भृतं चारित्रपालनमतीव दुष्करमितिभावः, 'महासमुद्दो इव भुयाहिं दुत्तरे' महासमुद्र इव भुजाभ्यां दुस्तरं, भुजाभ्यां इसमें भी क्रिया आचार आदिरूप धारे बडी तीक्ष्ण है।-(लोहमयाइवजवा चावे यबा) जिस तरह मोम (मेण) के जिस के दांत बने हों, वह लोहे के चनें नहीं चचासकता है-उसी तरह सकल संयम रूप चारित्र कापात्रन भी बड़ा कठिन कार्य है (वालुयाकवले इव निरस्साए) बालुका का ग्राम जिस प्रकार निस्सार-स्वाद रहिन-होता है-उसी तरह विषय सुख से वर्जित होने के कारण निर्ग्रन्थ प्रवचन भी-निस्सारहै (गंगाइव महनदी पडिसोय गमणाए) जिसतरह प्रवाहकी प्रतिकूल दिशा तरफ चलने बालाव्यक्ति गंगा नदी को पार नहीं कर सकता उसी तरह विषय कपायों से प्रतिकूल होकर इस निग्रन्थ-प्रवचन का पालन करना भी बड़ा ही दुष्कर कार्य है क्योंकि इसके पालन करने में जीवोंकों वडी २ अनुकूल प्रतिकूल परिषहें और उपसर्ग-समय २ पर टक्करें दिया करते हैं। अतः चारित्रकी परिपालना ऐसे समय बडे दुष्कर हो जाती है-महासमुद्दोइव भुयाहि दुत्तरे) भुजाओं जैसे समुद्र का पार करना अशक्य होता हैठिया माया२३५ धार मई ती डोय छ (लोहमया इव जवा चायवा) જેમકે જેના દાંત મણના બનેલા હોય તે તે લોખંડના ચણું ચાવી શકતો નથી, ते शते स४७१ सयभ३५ यारियर्नु पालन हुन ४४५१ आम छ. (बालुया कवले इव निरस्साए) रेभ रेतीनो जियो मेस्वाह होय छ, तेभर विषय सुम २हित डोवाथी या निथ अवयन पY निस्सार छ. (गंगाइव महानदी पडि सोयगमणाए.) म अवाडनी प्रतिस हिशामा ना२ भाणुस नहान પાર થઈ શકતું નથી, તેજ રીતે વિષય કષાયથી પ્રતિકૂળ થઈને આ નિર્ચા પ્રવચનનું પાલન કરવું પણ અતીવ કઠણ કામ છે, કેમકે એનું પાલન કરવામાં જેને ઘણ ભયંકર અનુકૂળ પ્રતિકૂળ પરિષહો અને ઉપસર્ગો વખતેવખત પ્રહાર કરતા જ २९ छ. थेटो याश्यितुं पासन मावा समये मन ४५३ ५७ ५छ. (महासमुद्द इव भुयाहि दत्तरे) भासने म पाताना मामाथी तीने समुद्रने
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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