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________________ शाताधर्मकथासूत्रे सामान्यम् इतिबोध्यम् । चौरादिसदृशं धनम् आत्मगुणापहारकस्वाद अश्चि प्राणान मृत्युरिवात्मगुणान् धनमपहरतीति भाव: । पुनः कीदृशं धनमित्याह'सडगडणविसम्मे नपतनविध्वनधर्मक शयनंखादे जीर्णत्वं प्राप्तस्य तत्त्वाद्यवयवानां विनाशः पतनं - वर्णादि विनाशः, विध्वंसनंच=मृलोच्छेदः स धर्मो यस्य तत्तथा पश्चात् पुस्तथ खलु श्रवयविप्राणीयम् अवश्यं त्याज्यम्, अथ कः खलु जानाति है माता पितरौ ! को यावद् गमनाय संग्रह हुआ है। अथवा चौरादि सामान्य इसे इसलिये भी कहा गया है यह आत्मा के गुणों का विनाशक होता है। यह आत्मा में अनेक अनेक दुर्गुणों को उत्पन्न कर देता है। हिंसा झूठ, चोरी व्यसन, सभी निन्दित कार्य इसी धन के बल पर मनुष्य करते हैं। अतः आत्मा के सद्गुणों का विनाश इनके सद्भाव में अवश्य होता है। (मडण पडणविद्धंणधम्मे ) पौगलिक पर्याय होने से इस द्रव्य का भी शटन पतन एवं विध्वंसन स्वभाव है। यह तो हर एक कोई जानता है कि पौद्गलिक वस्तुओं में सदा एक रूपता नही रहती है। वे जीर्ण हो जाती है-नष्ट हो जाती है वर्णादिकरूप भी उनका परिवर्तित हो जाता है। यद्यपि पौद्गलिक पदार्थों का द्रव्य दृष्टि से मूलतः विनाश नहीं होता है परन्तु पर्याय की अपेक्षा उनका मूलतः भी विनाश हो जाता है। इसलिये धन को यहां शटन, पतन एवं विध्वंसन धर्म वाला प्रकट किया गया है। (पच्छापुरं च णं अवम्मविजणिज्जे से के णं जाणड़ अम्मयाओ ! के पुण्वंगमणाए के पच्छागमणाए इत्यादि) अतः हे माता पिता ! इस द्रव्य का जब एक न एक આ દ્રવ્યને ચારાદિ સામાન્ય એટલા માટે કહેવામાં આવ્યું છે કે, આ આત્મગુણાને નષ્ટ કરનારૂ છે. આત્મામા આ દ્રવ્ય ઘણા દÖણા ઉત્પન્ન કરે છે. હિંસા, અસત્ય, ચારી, વ્યસન એ ખધા નિન્દ્રિત કર્યા આ ધનના બળે જ માણસો કરતા હાય છે. એટલે દ્રવ્યની હયાતીમાં ચેાકકસપણે આત્મણા નાશ પામે છે, આમાં લગીરે શંકા નથી (सडपडणविपणनम्मे ) चौहूगसिड पर्यायना सीधे मा દ્રવ્યનું પણ શટન, પતન, અને વિશ્વસન સ્વભાવ છે. પૌદૃગલિક વસ્તુએમાં સદા એકરૂપતા નથી, આ વાત તો બધા જાણે જ છે. તે જીણુ થઈ જાય છે; નષ્ટ થઇ જાય છે, રંગરૂપ પણ તેમનુ ખદલાઈ જાય છે. જો કે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ મૂલતઃ આ પૌદ્ગલિક પદાર્થો નાશ પામતા નથી, પણ પર્યાયની દૃષ્ટિએ મૂળ રૂપે તેમને ( पहानी ) विनाश थाय है. शेटला भाटे घनने गर्डी शटन, पतन भने विध्वभन श्रभवाणु श्रद्धेवाभा गाच्यु B. ( पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पनहणिजे से केणं जाणइ अम्मयाओ के पुत्रं गमणाए के पच्छा गमणाए इत्यादि) 5 ३५४ " 1
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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