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________________ शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे समुद्ररवाकुलामत्र राजगृहं कुर्वन्तः' इति । रायगिहस्स नयरस्स' राजगृहस्य नगरस्य 'मज्जं मज्झेणं' मध्यमध्येन ‘एगदिसिं' एकस्यादिशि, 'एगाभिमुहा' एकाभिमुखा. एक मगन्तं अमिअभिगतं मुखं येषां ते तथा भगवदभिमुखा इत्यथः, निर्गच्छन्ति, 'इमं च णं' अस्मिन् समये च खलु मेघकुमारः 'उपिपामायवरगए' उपरिप्रासादवरगतः प्रासादवरोपरिभूमिकस्थ; 'फुटमाणेहिं' स्फुटद्भिः गद्यमानः 'मुयंगमत्थएहि' मृदङ्गमस्तकैः यावद मानुष्यकान् भोगान् भुञ्जानः 'रायमग्गं च' राजमार्ग च 'ओलोएमाणे२' अवलोकमानः२ एवं च ग्वलु विहरति आस्ते। ततः खलु स मेघकुमारस्तान् बहुनुग्रान् एकस्या दिशि६,०६ करते हुए ये सब चल रहे थे। उनके उन शब्दों से राजगृह नगर पया मालूम हो रहा था कि मानो वह समुद्र के ध्वनि से ही आकुल काकुल सा हो रहा है। इस तरह होते हुए वे सब (रायगिहस्स नयरस्म मज्झमझणं एगदिसि एगाभिमुहा निगच्छंति ) राजगृह नगरके ठीक बीचो बीच से होकर एक ही दिशा की ओर एकाभिमुख होकर चल दिये। (इमंच णं मेहेकुमारे उप्पि पासायवरगए फुटमाणे मुयग मत्थएहिं जात्र माणुस्मए कामभोगे मुंनमाणे रायमग्गं च ओलोग्रे २ अंवं च ण विहरइ ) इम समय मेघकुमार अपने महल के उपर बैठा हुआ था। उसका समय जैमा पहले बतलाया गया है कि बाजोंकी मधुर नियों के श्रवण से तथा उनम २ ३२ प्रकारके नाटकों के कि जिनमे अपने ही शौर्य आदि गुणों का प्रदर्शन रहता था अवलोकन से व्यतीत होता था। इस प्रकार मनुष्य भव संबन्धी कामभोगों को भोगता हथा वह अपना समय आनंद के साथ व्यतीत कर रहा था। उस मेघરતા તેઓ બધા જઈ રહ્યા હતા. તેમના ઘોઘાટથી રાજગૃહનગર જાણે કે સમુદ્રની भ शुतिया २यु तु माशते ते मया (रायगिहस्स नयरम्स मज्झ मज्झेणं एगदिसि एगाभिमुहा निग्गच्छति) गृह नगनी क्थ्ये थने मेशि त२५ मेमिभुज थाने 13 Pा हुता (इमे मेहे कुमारे उदि पासायवरगए फुटमागहि मुयंगमस्थए हिं जान माणुग्यए कामभोगे भुंजमाणे गयम ग्ग च ओलोपमाणे? एवं च णं विहरड) ते मते भेभा२ पोताना महसनी ઉપર બેઠે હતું. તેને વખત જેમ પહેલા વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તેમ-વાજાએની મધુર ધ્વનિઓના શ્રવણથી, તેમજ ઉત્તમોત્તમ પ્રકારના નાટકના–કે જેમાં પિતાના જ શૌર્ય વગેરેનું પ્રદર્શન રહે છે–અવેલેકન કરતા જ પસાર થતો હતો આ પ્રમાણે મનુષ્યભવના કામો ભગવતે તે પિતાને વખત સુખેથી પસાર કરતો
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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