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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका अ १ स १४ अकालमेघदोहदनिरूपणम् १९७ न्तिके एतमर्थे श्रुत्वा निशम्य हृष्ट० यावत् हृदयः श्रेणिकं राजानमेवमवदत् - मा खलु यूयं हे तात ! अपहतमनः संकल्पा यावद् ध्यायत= आर्तध्यानं माकुरुत, अहं खलु तथा करिष्यामि यथा खलु मभ लघुमातुर्धारिण्या देव्या अस्यैतद्रूपम्याकालदोहदस्य मनोरथसंपचिर्भविष्यति इति कृत्वा श्रेणिकं राजानं ताभिः इष्टाभिः यावत् 'समासासेड' समाश्वासयति = श्रेणिकनृपस्य विश्वासमुत्पादयति । ततः श्रेणिको राजा अभयेन कुमारेण एवमुक्तःसन् हृष्टतुष्टो यावद् अभयकुमारं सत्करोति संमानयति, सत्कृत्य संमान्य प्रतिविसर्जयति । १४ स. ने बहुत अधिक हर्षित हृदय होकर उनसे इस प्रकार कहा - ( माणं तुब्भ ताओ ? ओह्रयमणं जाव झयायह अहां नहा करिस्मामि जइगं मम चुल्ल मायाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवरस अकाल दोहलस्स मणोरहसंपत्ति भविस्सइति सेणियं रायं ताहिं इड्डाहि कंताहिं जाव समासासेइ ) ते तात ? आप अपन मनः संकल्प आदि वाले मत होओ और न किसी प्रकार का आध्यान ही करो - मैं ऐसा उपाय करूँगा कि जिस से मेरी छोटी माता धारिणीदेवी के इस अकालोद्भूत दोहद की मनोरथ संपत्ति संपन्न हो सके ऐसा कहकर अभयकुमारने श्रेणिकराजा को कांत, इष्ट, आदि विशेषणों वाले वचनों से आश्वासन बंधाया- उन्हें विश्वास पदा कराया - (तपणं सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं कुत्ते समाणे हट्ट तु जाव हिवए अभयकुमारं सक्कारेह सम्मागेइ सक्कारिता सम्मा जित्तापडि विसज्जेइ) १४ अभयकुमार के द्वारा इस प्रकार कहे गये वे श्रणिक गजा बहुत अधिक हर्पित हृदय आदि हुए और फिर उन्होंने अभयकुमार का सत्कार और सन्मान किया । सत्कृत और सन्मानित कर बाद में उन्हें थता अभयङ्कुभारे पितांने छु - (माणं तुब्सताओ ? ओहयमणं जाव झियायह अहणता करिस्सामि जहणं मम चुल्लमाज्याए धरिणीए देवीए अयमेयाख्वस्त अकालदोहलम्स मणोरहसपत्ती भविस्स तिहु सेणियं राय ताहि किंताहिं नाव समासा से ) हे तात । तभे दु:भी न थायो भने य જાતની ચિંતા ન કરો. હું એવી રીતે પ્રયત્ન કરીશ કે જેથી મારા (અપર) નાના માતા ધારિણીદેવીનું અકાળ દોહદ–મનારથ-પુરુ થાય, આ પ્રમાણે અભયકુમારે ઇષ્ટકાંત વગેરે વિશેષાવાળા વચનાથી શ્રેણિક-જાને આશ્ર્વાસન આપ્યું અને હૃદયમા विश्वास उत्पन्न हुये. (तरुणं सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं वृत्ते समाणे ege जाव oिre अभयकुमारं सक्कारेइ संमाणेइ सक्कारिता सम्माणिना पडित्रिसज्जइ) मा प्रभा अभयकुमार वडे हेवामां आवेला शब्न बहुत प्रसन्न
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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