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________________ १८० शाताधर्म कथाङ्गसूत्रे देव्याः 'अंगपडियारियाओ' अङ्गपरिचारिका: आत्मरक्षिकाः, अभितरियाओ' आभ्यन्तरिकाः अन्त पुरनिवासिन्यः समये२ समुचितविचार दायिका इत्यर्थः। तथा 'दासचेडियाभो' दासचेटिकाः-दास्यश्चताश्चेटिका इति दासचेटिकाः श्वकर्मधारयेत्यादिना दासी शब्दस्य पुंवद्भावः, तत्र दास्या मदनादि कार्यकारिण्य, ता एव चेटयश्च रहस्यवार्ताकारिण्यः, एताः सर्वाः धारिणी देवीं 'अोलुग्ग' अवग्णांग्लानां जाव झियायमागि' यावद् ध्यायन्तीम आर्तध्यानं कुर्वन्तीं पश्यन्ति, दृष्ट्वा एवमवादिषुः-किं-किमर्थ-कस्मात् कारणात् खलु हे देवानुप्रिये अबरुग्णा, अवरुग्णशरीरा, यावद् ध्यायसि-आर्तध्यानं करोषि? । ततः खलु सा थारिणीदेवी ताभिरङ्गपरिचारिकाभिः आभ्यन्तरिकाभिः दासचेटिकाभिः एवमुक्ता सती ता दासचेटयः नो आढाइ'नो आद्रिय ते, 'णो परियाउस रानी की जों (अंग पडियारियाआ) अंगपरिचारिकाएँ थीं कि जो (अभितरियाओ) अन्तःपुरमें ही सदा उसके साथ रहती करती थीं और समय२ पर उसे उचित सुजाव दिया करती थीं तथा (दास चेडियाओ) दासीरूप चेटिकाएँ थी कि जो उसके शरीर का मर्दनादिकार्य करनेके लिये नियुक्त थीं उन्होंने (धारिणीदेवी ओलुग्गं जाव झियायमाणिं पासति) उस धारिणी देयो को चिन्ता मग्न एवं दुबलशरीर वाली जब देखा तव (पासित्ता) देवकर (एवं बयासी) इस प्रकार कहा (किण्णं तुमे देवानुप्पिए ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाब झियायसि) हे देवानुप्रिये ? क्या कारण है जो तुम रात दिन कृश शरीर हो रही हो और आर्तध्यान किया करती हो ? (तणं सा धारिणोदेवीं ताहि अंगपडियारियाहि-अभितरियाहिं दास पेडियाहि एवंयुत्ता समाणी ताओ दासचेडियाओ नोआढाइ णो परियाणाइ) (ती से) uीनी (आपडियारियानो) २५२ सेविमरेसा (अभितरियामओ) તેની સાથે સદા રણવાસમાં જ રહેતી હતી અને અનુકૂળ સમયે તેને ચગ્ય સલાહ आपती ती-(दासचेडियाओ) ४सी३५ येटिन्यासमा तना शरी२ मालिश वर्गः भाटे नियुत ४ वामा सावीती-तमामे(धारिणी देवों ओलग्गं नाव झियासमरि पाति) त्या पाहवान श शरीवाणी तमा वितातुन त्यारे (पाविना) नईने (एवं व्यापी) यु (किण्णे तुमे देवानुप्पिा ओलग्गाश्रीलग्ग मीगजाब झियायमि), देवानुप्रिये। तमिम मातध्यानयी l यना citi? अने चिन्तामा भन छ। (नपणं सा धारिणी देवीं ताहिं अंगडियारियाहि अभितरियाहिं दाम चेडियाहिं एवं बुत्ता समागो ताओ दास याओ नो पाहाः णा परियाणाह)परिया-आमा, हायटिम्गाये मारीत
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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