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________________ १७१ अनगारधर्मामृतवर्पिणीटीका मू. १२ अकालमेघदोहदनिरूपणम् 'हन्थिरबंधवरगएणं' हस्तिस्कन्धवरगतेन, इदं राज्ञो विशेषणम्, इस्तिरत्न स्कन्धमारूढेन राज्ञेति भावः 'पिट्ठो' पृष्ठतः पृष्ठदेशे, 'समणुगच्छमाणीप्री' समनुगम्यमानाः पृष्ठदेशे समनुगम्यमाननृपसहिता इत्यर्थः, 'चाउरंगिणीए सेणाए' चतुरङ्गिण्या सेनया, चतुरङ्गिणी सेनां वर्णयति-'महयाहयाणीएणं' महता हयानीकेन-विशालतुरगयलेन, महच्छन्दः सर्वत्र योजनीय:, तेन 'गयागीएणं गजानीकेन-विशालगजवलेन 'रहाणीएणं' स्थानीकेन-विशालस्थवलेन, 'पायत्ताणीएणं' पदात्यनीकेन-प्रभूतपदातिवलेन, एवं भूतया चतुरङ्गिण्या से नया समनुगम्यमानाः इति पूर्वेण सम्बन्धः, तथा 'सचिडीए' सर्वऋद्धया . सकलराजविभवरूपया 'सव्वज्जुईए' सर्वद्युत्या-वस्त्रालङ्कारादि सकलप्रभया 'जा' यावत् 'निग्योसणादियरवेणं' निर्घोपनादितरवेण,-तत्र-निर्घोषः शंखवायादीनामऽव्यक्तो महाशब्दः, नादितः मनुष्यकृतमंगलशुभशब्दः जयविजयादिरूपः, श्रेणिक राजा के साथ कि जो (हत्थिखंधवरगएणं) हस्तिरत्न पर आरूढ र हैं ( पिओ समणुगच्छमाणिओ) पीछे से अनुगम्यमान हैं-अर्थात हस्तिरत्न , पर आरूढ हुए श्रेणिक के साथ अन्य बैठकर चल रहीहों-(महया हयाणीएणं, गयाणी एणं, रहाणीएणं पायताणीएणं चाउरंगिणीए सेणाए) तथा जिनके पीछेर घोडोंवाली, हाथीयोवाली, रथोंवाली पदातियोंवाली विशाल चातुरंगिणी.. चल रही हो, तथा (सचिट्टीए, सब्वज्जुईए जाव लिग्योसणादियरवेणं , रायगि नगरं) और जो अपनी सकल राज विभवरूपऋद्धि से वस्त्र अलंकार आदिरूप सकल घुति से, निर्घोपरव से शंख, वाद्य आदिको के अव्यक्त महान् शब्दो से एवं नादितरव से-मनुष्यों द्वारा उच्चरितजयविजय रूप मांगलिक शुभ शब्दों से राजगृह नगर को देर नहीं हुई कि जो पोते विद्यारे छ: माशते हु प (सेणिएणं रन्ना सद्धि) श्रणि रानी साथे- रेमो (हत्थिखंधवरगएणं) उत्तम हाथी ५२ सवार हाय, (पिट्टी समणुगच्छमाणीओ) मने तेमनी पाछपाछ मीत सेवा पाणु अनुगमन કરતા હોય એટલે કે બીજા સેવકે પાછળ પાછળ શ્રેષ્ઠ હાથીઓ ઉપર સવાર થઈને भावता डा य, (मह्या हयाणीएणं, गयाणीएणं, रयाणीएणं पायत्ताणीएणं चाउरंगिणीए सेणाए) तेमनी पाछ हाथी, घास. २० मने पायगानी विशाल तुगिणी सेना यासती डाय, (सविडीए सबज्जुईए जोव निग्धोस णादियरवेणं रायगिह नगर) भने पातानी सपू शवमव३५ द्धिथी, વસ્ત્ર અને ઘરેણાંઓની પ્રભાથી નિધથી, શંખ અને વાજા વગેરેના અવ્યક્ત ઘંઘાટથી, નાદિતરવથી, મનુષ્ય દ્વારા ઉચ્ચરિત થતા માંગલિક “જ્ય જયકારેથી २Nउनगन लेती है (सिंधांडगतियचउक्कचच्चरमहापहपहेसु श्रृंगारभा
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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