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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका, सू.१० उपस्थानशालासज्जीकरणादिनिरूपणम् १२७ उक्त विधया 'संराहणाए' संवाहनया अगसंमर्दनक्रियया 'संवाहिए समाणे' सम्बहितःसन् 'अवगयपरिस्समे' अपगतपरिश्रमः अपगतः परिश्रमो यम्मात स तथाः विनाशितखेदः इत्यर्थः 'नरिंदे नरेन्द्रः 'अणसालाओ पडि निक्खमइ' अट्टनशालातः प्रतिनिष्क्रामति-निस्सरति प्रतिनिष्क्रम्य=निःसृत्य 'जेणेव मन्जनघरे तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैव उपागच्छति उपागत्य च 'मज्जणघरं अणुपविसई मज्जनगृहं अनुपविशति, अनुपविश्य तत्र स्नानमण्डपे, कथम्भूते स्नानमण्डपे ? इत्याह-'समुत्तजालाभिरामे-समुक्तानि-मुक्ता सहितानि जालानि, गवाक्षाः, अभिगमःसुन्दरः, तस्मिन् 'विचित्तमणिरयणकोट्टिमतले विचित्र मणिरत्नकुटिमतले, विचित्राणि पश्चवर्णानि मणिरत्नानि मणय: ईन्द्रनीलादयः करकेतनादयश्च, रत्नानि-माणिक्यादीनि,तैः खचितं कुटिमतलं-भूभागो यस्य स तस्मिन् अतएव 'रमणिज्जे' रमगीये मनोरमे पहाणमडवंसि' स्नानमण्डपे= हणाए) अंग संमर्दनरूप क्रिया पूर्वक (सवाहिए समाणे) अपने शरीर की खूब मालिश करवाई। मालिश करवाते२ जब बे (नरिंदे) राजा [अवगयपरिस्समे परिश्रम रहित हो चुके-अर्थात् उनका शरीर जब हल्का हो गया-तब वे (अणसालाओ) उसव्यायामशाला से [पडिणिक्खमइ. बाहिर निकले और [पडिनिक्खमित्ता] बाहर निकलकर [जेणेव मजण घरे तेणेव उवागच्छइ जहाँ स्नान घर था वहां गये। [उवागच्छित्ता] वहां जाकर वे (मजणघरंअणुपविसइ) स्नानघर मे प्रविष्ट हुए (अणुपविसित्ता) प्रविष्ट होकर [समुत्तजालाभिरामे मुक्ताओं के गवाक्षों से सुन्दर [विचित्त मणिरयणकोटिमतले] पंचवर्ण के मणि एवं रत्नों से खचित भूमिवाले अतएव (रमणिज्जे)[रमणीय ऐसे (हाणमंडवसी) स्नानमंडप में-मालती,-चंपक, तथा माधवी की लताओं से परिवेष्टित स्नानस्थान में रखे हुए [णाणामणि43 तेणे (संवाहिए समाणे) पोताना शरी२नी भूम सरस शत भासिय ४२॥431वी भासिश ४२शवत न्यारे ते (नरिंदे) रात (अवगयपरिसम्मे) परिश्रम रहित थया सोन्यारे तमनु शरीर पनी आयु, त्यारे तेमा (अदृणसालाओ) व्यायामशाणामांथा (पडिनिक्खमे इ)डार माव्या मने पिडिनिक्खमित्ता) महार भावीन (जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागन्छइ) तमा नयां स्नानागार तु त्यां गया. (उवागच्छित्ता) त्यां ने तेश्या (मज्जणघरं अणुपविसइ) स्नानागारभां गया. (अणुपविसित्ता) मने त्यां प्रवेशीन (समुत्व जालाभिरामे) भाती sal अवाक्षाथी सुंदर (विचित्तमणिरयणकोहिमतले) पांय ना भए भने २त्नात भूभिवाणा मेटो (रमणिज्जे) २भानीय (हाणमंडमि) स्नानमयमा न्यो
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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