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________________ ६३६ भगवती सूत्रे ''टिई जहण' एकं समयं संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां स्थिति जघन्येनैकं समयं भवति, 'डेक्को सेणं तेत्तीस सागरोदमाई' उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । 'छ समुग्धाया आदिल्ला' पद समुद्घाता आदिमाः वेदना कयायादिकाः पद केवलि समुद्घातवर्जा भवन्तीति । संशिपञ्चेन्द्रियाणामेत्रमायाः वेदनाकपायगारणान्तिकवैक्रिय तैजसाहारकाख्याः पडेच समुदघाता भवन्ति, सामस्तु केवलिसमुद्घातः केवलिनामेव भवति तेषां शेपाः पट्ससुद्याता न भवन्ति इन्द्रियोपयोगाभावेन केवलिनामनिन्द्रियत्वादिति ते संज्ञिपञ्चेन्द्रियत्वेन न गृहमन्ते इति भावः । 'मारणांतिय समुग्धारणं समोहया विमरंति' ते संज्ञिपश्चेन्द्रिय जीवाः मारणान्तिक समुद्घातेन समवहता अपि म्रियन्ते 'असमोहया वि मरंति' असमवद्दता अपि म्रियन्ते । 'उवणा जहेव उवनाओ' उद्वर्तन यथैवोपपातः चतसृभ्योऽपि गतिभ्यः है ! 'ठिई जहन्नेणं' एक्क समय' इनकी जघन्य स्थिति एक समय की होती है और 'उक्फोसेन तेत्तील लागरोवमा उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम की होती है । 'छ मुग्धाया आदिला' आदि के छहसमुद् घात होते हैं । इन के केवलि समुद्घात नहीं होता है | वेदना, कषाय मारणान्तिक वैकिय तैजस और आहारक ये छ समुद्धात इनके होते है । केवलियों के वे ६ समुद्र्घात नहीं होते हैं । क्यों कि इनमें इन्द्रिय जन्य उपयोग का अभाव रहता है। इसलिये इनमें संज्ञी पंचेन्द्रिय संज्ञा नहीं होती है । इसीलिये इन्हें अनिन्द्रिय कहा गया है । 'मारणांतिय समुग्धाएणं समोहया वि मरंति' ये संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं। 'असमोरया चि मरंति' "" થાય છે. ચાર દિશાએથી પશુ થાય છે અને પાંચ દિશાએથી પશુ હોય છે. था पाठ श्रथ पुरायो छे. 'ठिई जहन्नेणं' एक समय' तेथोनी धन्य स्थिति- आयुमन मे समयनी होय छे. याने 'उकोसेण' वेत्तीस ' सागरोवमाइ " उष्ट स्थिति तेन्रीश सागरोयभनी थाय छे. 'छ समुग्धाया आदिल्ला' भने તેઓના આદિના એટલે કે-વેદના કષાય મારણાન્તિક વૈક્રિય અને તેંજસ, આ છ સમ્રુદ્ધાતે હાય છે તેઓને કેવલી સમુદ્દાત હાતા નથી. કેમ કે કેવલી સમુદ્લાત કેવલીયાને જ હાય છે, કેલિચેાને છ સમ્રુધ્ધાત્તા હોતા નથી, ઇન્દ્રિય જન્ય ઉપયેગના અભાવ રહે છે. તેથી તેમાં સ'ની પચેન્દ્રિય संज्ञा होती नथी. तेथी तेखाने मनिन्द्रिय ह्या छे, 'मारणंतिय समुग्धारण मोहया वि मर'ति' या संज्ञी पथेन्द्रिय कवी भारयान्ति समुद्दघातथी सभुद्द्धात - उरीने पाय भरे हे भने 'असमोहया वि मरति' भारणान्तिः
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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