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________________ ६३४ ____ भगवतीस्त्रे युक्ताः यावत् नो संज्ञोपयुक्ता वा भवन्ति । 'कोहकसाई वा जाव लोभकसाई वा अफसाई वा' संज्ञिपश्चेन्द्रियाः क्रोधकपायिनो दा लोभकपायिनो वा अपायिनी वा भवन्ति । 'इत्थि वेयगा बा, पुरिसवेरगा वा, नपुंसमवेयगा वा अवेयगा वा' ते संज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवाः स्त्रीवेदका वा भवन्ति, पुरुषवेदका वा भवन्ति नपुंसकवेदका वा भवन्ति अवेदका वा भवन्तीति । 'इथिवेचंधगावा, पुरिसवेदवंधगा वा, नपुंसमवेदवंधगावा, अबंधगा वा' स्त्रीवेदवन्धका दा भवन्ति पुरुषवेदबन्धका वा भवन्ति नपुंसक वेदवन्धका वा भवन्ति अबन्धका वा भवन्तीति 'सन्नी नो असन्नी' संक्षिपञ्चन्द्रियजीवाः संज्ञिनो भवन्ति नो असंज्ञिनो इस के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोरमा! आहार सनोवउत्ता, जाव नो सन्नोदउन्ता' हे गौतम ! ये आहार लंज्ञोपयुक्त होते हैं यावत् नो संज्ञोपयुक्त होते हैं। 'कोहकसाई ना जा लोभसलाई वाये क्रोध कषाय से लेकर लोभकषाय से युक्त होते हैं। तथा कषायों से रहित भी होते हैं। 'इथिवेषगा वा पुरिलवेयगा वा नपुंस गश्यमा वा' ये स्त्री वेदवाले भी होते हैं, पुरूष वेद वाले भी होते हैं और लपुंसक वेदवाले भी होते हैं । तथा-'अवेयगा वा भवंति' चिना बेवाले भी होते हैं । 'इस्थिवेदबंधगा वा, पुरिसवेदबंधगा वा नपुंसगवेबंधगा वा, अबंधगा वा' ये स्त्रीवेद के बन्धक होते हैं, पुरुषवेद के बन्धक होते हैं और नपुंसक वेद के भी धन्धक होते हैं। तथा इन तीनों वेदों के अबंधक भी होते हैं। 'सन्नी नो असन्नी' ये संज्ञो ही होते हैं असंज्ञी नहीं होते हैं। 'सई. दिया नो अणिदिया ये सेन्द्रिय होते हैं इन्द्रियों से रहित नहीं होते हैं। २मा प्रश्नमा उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ ४-'गोयमा ! आहारसन्नोवउत्ता, जाव नो सन्नोवउत्ता' हे गौतम ! | माहास शो५यावायावत् अय सोययावाणा डाय छ 'कोहकसाई वा जाव लोभकसाई वा अकसाई वा' આ ક્રોધ કષાયથી લઈને લેભકષાયવાળા હોય છે, તથા કષાયથી રહિત ५६ डायछे 'इत्थिवेयगा वा पुरिसवेयगा वा नपुसगवेयगा वा' मासीवाणा પણ હોય છે, પુરૂષદવાળા પણ હોય છે, અને નપુંસક વેદવાળા પણ હોય छ. तथा 'अवेदगा वा भवति' तसा विनाना पाय छे. 'इत्थिवेदबंधगा वा, पुरिस्रवेदबंधगा वा नपुसकवेदब धगा वा, अबधगा वा' स्त्रीवहन। બધ કરવાવાળા પણ હોય છે, પુરૂષદને બંધ કરવાવાળા પણ હોય છે, અને નપુંસકવેદનો બંધ કરવાવાળા પણ હોય છે. અને ત્રણ પ્રકારના વૈદ્યને मध नयी ५ ३२ता. 'सन्नी नो असन्नी' । सही होय छे. मसजी हाता नथी. 'सेइ दिया नो अणिदिया' मा छद्रयावाणा डाय छे. इन्द्रय
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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