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________________ प्रमेन्द्रका टीका श०३८ कृ.कृ. चतुरिन्द्रियजीवोत्पातः एवमेव भवसिद्धिकघटितानि चत्वारि शतानि तथा अभवसिद्धिकघटितानि चत्वारि शतानि चेति, सर्वसंकलितानि चतुरिन्द्रियैरपि कर्त्तव्यानीतिभावः । अत्र यद वैलक्षण्यं तदाह - 'नवरं' इत्यादि, नवर केवलं विशेषस्त्वयम् यत् एषां चतुरि न्द्रियाणाम् 'ओशाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं' अवगाहना जघन्ये नांगुळस्यासंख्येयभागममिता, 'उकोसेणं चत्तारि गाउयाई' उत्कर्षेण चतस्रो गव्यूतयः, इति चतुर्गव्यूति प्रमिता चतुःक्रोशप्रमाणा उत्कर्षेण वाराचतुरिन्द्रियाणामवगाहना प्रोक्तेति भावः । एषां 'ठिई जहन्नेणं एकं समयं ' स्थितिज घ न्येन एकं समयं यावत्, 'उक्को सेणं छम्मासा' उत्कर्षेण स्थिति षण्णासान् यावत् एतदेव वैलक्षण्यम्, 'सेसं जहा वे दियाणं' शेषम् - अवगाहना स्थिव्यतिरिक्त सर्व daar घटितशत, कापणेतलेल्या घटिन रात, अवसिद्विक घटेन चार शतक और भभवसिद्धिक घटिन चार शतक इस प्रकार से सब शतक १२ हो जाते हैं । ये १२ शत चौइन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में हैं। पूर्व शतक की अपेक्षा जो यहाँ अन्तर आता है उसे 'श्रोगाहणा जहन्ने अगुलस्त असंखेजा भाग उक्कोसेणं' चत्तारि गाउयाह" इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट किया गया है - यहां जघन्य से अवगाहनाशरीर की ऊचाई अंगुल के असंख्यात में भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट से चार कोश की है । ' एवं ' ठिई जहनेणं एक्कं समयं उक्को सेण छम्मासा' इनकी जघन्य स्थिति एक समय की और उत्कृष्ट स्थिति छहमास की है । 'सेस जहा वेइंदियाण' अवगाहना और स्थिति के अतिरिक्त और सब कथन जेसा दो इन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में कहा ६१७ ભવસિદ્ધિકવાળા ચાર શતક અને અભવસિદ્ધિવાળા ચાર શતકા આ રીતે સઘળા મળીને ૧૨ ખાર શતકા થઇ જાય છે. આ ખાર શતકા ચાર ઇન્દ્રિય જીવાના સ ખ ધમાં કહેલ છે. પહેલા શતકના કથન કરતાં આ કથનમાં જે अ ंतर आवे छे, ते 'ओगाहणा जहणेणं' अंगुलस्स असंखेज्जइ भाग, उनकोसे चत्तारि गाउयाइ' मा सूत्रद्वारा प्रगट रेस छे. मडियां धन्यथी अवगाहना શરીરની ઉચાઈ આંગળના અસખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણવાળી છે અને ઉત્કૃષ્ટ अवगाÈना थारगाउँनी आहेत हे. 'एसो ठिई जहणेणं एकं समयं उक्कोसेण छम्मासा' आमनी धन्य स्थिति थे! समयनी भने उत्कृष्टथी स्थिति छ भासनी ही छे, 'सेस' जहा वेई दियाण' अवगाहना भने स्थितिना स्थन કરતાં ખાકીત્તુ સઘળું કથન એ ઈન્દ્રિયવાળા જીયેાના સંબંધમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, તેજ પ્રમાણેનુ' છે भ० ७८
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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