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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३६ अ. श. १ उ.२ - ११ कृ. कृतयुग्मद्वीन्द्रियजी नि० ५९९ A नैरयिकेभ्यो यावद्देवेभ्यः १ इति प्रश्नः, उत्तरमाह - अतिदेशद्वारेण 'एव जहाएगिंदि महाजुम्माणं पढ समय उद्देसए' एवं यथा एकेन्द्रिय महायुग्मानां प्रथम समोश कथितं तथैव प्रथमसमयद्वीन्द्रियाणामपि उपपातादिकमवगन्तव्यम् 'दसणाणत्ताई ताई चैव दस इह वि' । एकेन्द्रियमहायुग्मानां प्रथमोद्देशे यानि दश नानात्वानि तान्येव दशापि नानात्वानि इहापि ज्ञातव्यानि । अत्र तु 'एक्कारसमं इमं नातं' एकादशमिदं नानात्वम् अत्र प्रथमोद्देशद्वीन्द्रियस्यौधिकापेक्षया 'नो मगजोगी जो वयजोगी कायजोगी' नो मनोयोगिनः प्रथमसमयद्वीन्द्रिया क्या वे नैर्गयको में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अतिदश द्वारा इसका उत्तर देते हुए प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं'एवं जहा एगिदियमहाजुम्माणं पढमसमभवद्देसए' हे गौतम ! जैसा कथन प्रथम समयोत्पन्न प्रथम कृतयुग्मकृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रिय जीवों के उत्पाद आदि के सम्बन्ध में किया गया है उसी प्रकार का कथन प्रथम समयोत्पन्न हीन्द्रिय जीवों के उत्पाद आदि के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये | 'दक्षणाणत्ताई' ताई' चेव दस इह चि' एकेन्द्रिय महायुग्मों के प्रथम उद्देशक में जो भिन्नताएं प्रकट की गई हैं वे ही दश भिन्नताएं यहां पर पर भी प्रकट कर लेनी चाहिये । तथा यहां पर एक ११ वीं भिन्नता है जो 'नो मणजोगी नो वगजोगी कायजोगी' इस શું તેએ નૈરયકેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા તિ` ચામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્ચામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? કે દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તર અતિદેશદ્વારા भाषतां प्रलुश्री गौतमस्वामीने उडे छे - ' एवं जहा एगि दियमहाजुम्मा ण' पढमसमय उद्देसए' हे गौतम! पडेला समयमा उत्पन्न थनाश द्रुतयुग्भ કૃતયુગ્મ રાશિવાળા એકેન્દ્રિય જીવેાના ઉત્પાત વગેરેના સંબધમાં જે પ્રમાણેનુ કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રકારનું કથન પ્રથમ સમયમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા એ ઈન્દ્રિય જીવેાના ઉત્પાદ વિગેરેના સબંધમાં પણ સમજવું, જોઈ એ 'दस नाणत्ताई' ताई' चैव दस इह वि' गोर्डेन्द्रिय भायुश्माना प्रथम उद्देशाम દસ પ્રકારનુ ભિન્નપણું પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. એજ પ્રકારથી દસ રીતનુ ભિન્ન પણુ' અહિયાં પણ સમજવું તથા અહિયાં એક અગિયાર ૧૧મું ભિન્નપ ુ भावे छे, ते 'णो मणजोगी णो वयजोगी कायजोगी' मा सूत्रपाठ द्वारा अगर १२
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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