SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 568
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ સર भगवती सूत्रे इत्यादि रूपेण प्रश्नः, उत्तरमाह - ' उनवाओ तहेच' उपपातस्तथैव यथा - कृतयुग्मकृतयुग्ममकरणे कथितः । ' परिमाणं पन्नरस वा संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अनंता वा' परिमाणं ज्योज शेकेन्द्रियाणां पञ्चवा, संख्याता वा, असं - ख्याता वा, अनन्तावेति । 'सेसं रहेन जाव अनंतखुतो' शेषं परिमाणातिरिक्तं तथैव यावद् अनन्तकृत्वः ६ । ' एवं एएस सोलस महाजुम्मेसु एको गमओ' योज एकेन्द्रिय जीव किस स्थानविशेष से आकरके उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरधिज्ञों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकरके उत्पन्न होने हैं ? अथवा देवों में आकरके उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'उवबाओ तहेव' हे गौतम | इनके उपपाद के सम्बन्ध में कथन पूर्व के जैलाही जानना चाहिये । अर्थात् जैसा कथन कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीवों के प्रकरण में किया गया है वैसा ही यहां पर समझना चाहिये। 'परिमाणं पन्नरस वा संखेज्जा वा अखेजा वा अणूंना वा' यो योज एकेन्द्रिय जीवों का एकसमय में उत्पन्न होने का परिमाण १५ अथवा संख्यात अथवा असंख्यात अथवा अनन्त जानना चाहिये ।' सेस' तहेब जाव अनंतखुत्तो' इस परिमाण कथन के अतिरिक्त और सब कथन के अनन्तर उन्न हो चुके है' यहाँ तक जैसा पहिले कहा गया है वैसा ही यहां पर कह देना चाहिये। ' एवं एएस सोलह महाजुम्मेसु एक्को गमओ' इस प्रकार जैसा कि ऊपर में વિશેષથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? શું તેઓ નૅરિયકામાંથી આવીને ઉ, પન્ન થાય છે ? અથવા તિય ગ્રોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ प्रश्नना उत्तरमां अलुश्री छे - 'उववाओं रहेव' हे गौतम ! शासना ઉત્પાદના સંબંધમાં પહેલા કહ્યા પ્રમાણેનુ' જ કથન સમ”વું અર્થાત જેવું કથન કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ એકેન્દ્રિય જીવેાના પ્રકરણમાં કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમા अथ मडियां समभवु' लेखे 'परिमाण' पन्नरसवा सरखेज्जा वा अस खेज्जावा अनंताचा वा' यो योडेंन्द्रिय भवनु खेड सभयभां ઉત્પન્ન થવાનું પરિમાણ ૧૫ પંદર અથવા સખ્યાત અથવા અસ ખ્યાત અથવા अन ंत समन्न्वु’· ‘सेस ं तहेव जाव अनंतखुत्ता' या परिमाणु शिवाय माडीनुं ખીજું તમામ કથન “તેએ અન ́તવાર ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયા છે, “મા થન સુધીનુ પહેલાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણે અહિયાં સમજવું'
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy