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________________ ५२६ भगवतीसूत्र णामुपादोऽधिकृतः ते चैकेन्द्रिया वस्तुतोऽनन्ता एवोत्पद्यन्ते तेषां चोवृत्तेर संभवाद कायसंवेधो न संभवति । यश्च पोडशादीना मेकेन्द्रियेपूपपातः कथितः स च त्रसकायिकेभ्यो ये एकेन्द्रिये पूत्पद्यन्ते तदपेक्ष एव, न पुनः पारमार्थिकः अनन्तानां पतिसमयं तेपूरपादादिति । 'आहारो जहा उप्पलदेसए' कृतयुग्म कृतयुग्मै केन्द्रियाणामाहारो यथा उत्पलोदेशके कथितस्तथैवात्रापि ज्ञातव्यः । 'नवरं निवाघाएणं छदिसिं' नवरं केवलम् उत्पलोदेशकापेक्षया इदं वैपक्षण्यं यत् निर्याधातेन यदि कश्चित्मतिबन्धको न भवेत् तदा पदिशम् पइदिग्भ्य आहारग्रहणं कुर्वन्तीति । 'वाघायं पडुच्च सिय विदिर्सि' व्याघातं प्रतीत्य स्यात इसलिये वहां काय संबंध बनजाता है पर यहां कृतयुग्मकृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रियोंका उत्पाद अधिकृत है । ये एकेन्द्रिय वस्तुतः अनन्त रूप में उत्पन्न होते हैं और थे फिर से निकल कर पुनः वहीं पर उत्पन्न होवे तो इनका काय वेध बन सकता है पर इनका वहां से निकलना असंभव है अतः कायसवेध नहीं बनता है षोडश राशिप्रमित जीपों का जो एकेन्द्रिय जीवों में उत्पात कहा गया है वह जो सकाधिक से आकर के वहां उत्पन्न होते है उस अपेक्षा से कहा गया है । पर वह वास्तविक उत्पाद नहीं कारण कि एकेन्द्रियों में अनन्त जीवों का उत्पाद होता है । 'आहारो जहा उप्पलुद्देसए' कृत युग्म कृतयुग्म एकेन्द्रियों का आहार जैसा उत्पल उद्देशक में कहा गया है वैसा ही यहां पर भी जानना चाहिये 'नवर निव्वाधाएणछद्दिसि' परन्तु वहां की अपेक्षा यहां केशल इतनी सी विशेषता है कि यदि कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है तो ये छहों दिशाओं से आहार ग्रहण પ્રમિત એકેન્દ્રિયના ઉપપાતને અધિકાર કહેલ છે. આ એકેન્દ્રિ વસ્તુતઃ અનંતપણાથી ઉત્પન થાય છે. અને તે ફરિથી ત્યાંથી નીકળીને ફરીથી ત્યાં જ ઉત્પન્ન થાય તે તેઓને કાયસ વેધ બની શકે છે. પરંતુ ત્યાંથી તેઓનું નીકળવું અસંભવ થાય છે. તેથી કાયસંવેધ બનતે નથી. સેળરાશી પ્રમિત જીવને જે એકેન્દ્રિય જેમાં ઉત્પાત કહેલ છે, તે ત્રસાયિકથી આવીને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે તે અપેક્ષાથી કહેલ છે પરંતુ તે વાસ્તવિક ઉત્પાત નથી કારણ કે-એકેન્દ્રિમાં અન તજીને ઉત્પાદ થાય છે. 'आहारो जहा उपलुदेलए' तयुग्म कृतयुगम सन्द्रियानी भाडा २ प्रभा ઉત્પલ ઉદેશામાં કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે અહિયાં પણ સમજવું જોઈએ 'नवर निव्वाघाए ण छदिसि' ५२'तु त्यांना ४थन ४२di मडियां व मेट જ વિશેષપણું છે કે જે કઈ પ્રતિબંધ ન હોય તે આ છએ દિશાઓમાંથી
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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