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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ ७.१ ०२ कृ. कृतयुग्मकेन्द्रियाणामुत्पत्यादिकम् ५१९ 'सन्वेसिं' सर्वेषां कर्मणां दर्शनावरणीयादारभ्यान्तरायिकयन्तानां वेदका एव भवन्ति किन्तु अवेदका न भवन्तीति भावः । ' ते णं भंते ! जीवा कि मायादेयता असावावेगा पुच्छा' हे भदन्त ! ते कृतयुग्मै केन्द्रियजीवाः किं सावस्यसातावेदनीयकर्मणो वेदका अनुमनकर्त्तारो भवन्ति अथवा असातावेदनीयस्य वेदका भवन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'सातावेदगा वा असातावेदगा बा' ते जीवाः सातावेदका of refa तथा असातावेदका अपि भवन्तीति । ' एवं उप्पलसदेगपरिवाडी' एवं यथा उत्पलोद्देशके कर्मपरिपाटी कथिता सैदेदापि अनुसन्धेया 'सन्धेर्सि कम्माणं उदई' ते जीवाः सर्वेषां कर्मणा सुदयिनो भवन्ति तेषां जीवानां सर्व कर्मणामेवोदयो भवन्तीति । 'नो अणुदई' नो अनुदयिनो भवन्ति कर्मणामिति जीव 'सन्वेसि' दर्शनावरणीयादि से लेकर अन्तराय कर्म तक के समस्त कर्मों के वेदक ही होते हैं अवेदक नहीं होते हैं । 'ते f भंते । जीवा किं साधावेवगा असावावेगा' हे भदन्त । ये कृतयुग्म कृतयुग्म राशि प्रमाण एकेन्द्रिय जीव क्या साता वेदनीय कर्म के वेदक होते हैं ? अथवा अभ्याता वेदनीय कर्म के वेदक होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोगमा ! साधावेयगा वा अलावावेगा वा' हे गौतम ! वे साता कर्म के वेदक भी होते हैं और असाना कर्म के वेदक भी होते हैं । 'एवं उत्पलुद्दे मगपरिवाडी' इस प्रकार से उत्पल उद्देशक मैं जैसी फर्म वेदन की परिपाटी कही गई है वैसी ही यहां पर जानना चाहिये । 'सच्चेसि' कम्प्राण उदई' इन जीवों के समस्त पर्यो का उदय होता है । 'नो अणुदई' अनुदयवाले ये नहीं होते हैं । उदीरणा के युग्भराशि प्रभाणु भेन्द्रिय वा 'सव्वेसि' दर्शनावरणीय विगेरेथी सहने અંતરાય કમ સુધીના સઘળા કર્યાંનુ વેદન કરવાવાળા જ હોય છે. વેદક होता नथी, 'वे ण' भते ! जीवा कि सायावेदगा असायावेयगा' हे अगवन भा કૃતયુગ્મ મૃતયુગ્મ રાશીપ્રમાણવાળા એકેન્દ્રિય જીવા શુ' શાતા વેદનીય કર્મીનુ વેદન કરવાવાળા હોય છે? અથવા અસાતા વેદનીય કતુ વેદન કરાવાળા હાય છે ? या प्रश्नना उत्तरसां अनुश्री गौतमस्वामीने हे हे !-'गोयमा । साया वेदगा वा असाया वेयगा वा ' ગૌતમ । તે સાત કતુ. વેદત કરાવાળા या हाय छे भने ससाता तु वेहन उरवावाजा होय छे. 'एव' उत्पलुद्देमा परिवाडी' આ રીતે ઉત્પલ ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણેનીકના વેદનની પરિપાટી કહેવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણેની પરિપાટી અહિયાં પણ सभवी. 'सव्वेसि' कम्माण उदई' भने संघमा भेनि हिय धाय है.
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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