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________________ अमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ लू०१ अन० कैकेन्द्रियाणा भेदादिनि० ४५३ नाम् 'अंतोमणुस्सखेत्ता' अन्तर्मनुष्यक्षेत्रमित्यादि, वादरवायुकायिकानां पुनः स्वस्थानम् 'सत्तसु घगवायक्लएस' सप्तवनवातलयाः पादरवनस्पतीनां तु स्वस्था. नम् 'सत्तसु घणोदहीसु' सप्तधनोधा इत्यादि । 'उचाय समुग्धाय सट्टाणाणि जहा तेसिं चेव अपज्जत्तगाणं वायराण' उपपातसमुद्घातस्वस्थानानि यथा तेषां पृथिवीकाविज्ञानामेव अपर्याप्तकानाम् अपर्याप्ततागुणविशिष्टानां वादराणाम्, अपर्याप्त बादरपृथिवीकायिकादीनां येन प्रकारेणोपपातसमुद्घात स्वस्थानानि कषितानि तेनैव रूपेण पर्याप्त बादरपृथितीकायिकादीनामपि उपपात समुधात स्वस्थानानि ज्ञातव्यानि, तानि चैवम् 'जत्थेव वायरपुढवीकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बायर पुढबीकाइयाण अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं सबलोए, समुग्धाएणं सालोए, सट्ठाणेणं लोगस्स असंखेज्ज स्वस्थान 'अंतो भणुस्लखेत्ते' अन्तर्मनुष्य क्षेत्र है। 'सत्तालु घगवायवलएसु' बादरवायुसाधितों का रयस्थान सात घनघात आदि हैं । वादरवनस्पतिकाषिज्ञों का स्वस्थान खत्तसु घणोदही' लान घनोदधियों में है। इत्यादि। 'उधवाय लमुरघाय सहाणाणि जहा तेसिं चेव अपज्जा त्तगाणं घायराण' उपपात, लसुद्घात और स्वथान ये जिस प्रकार से पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवों के कहे हैं। उसी प्रकार से ये अपर्याप्त चादरपृथिवीकाधिक आदिकों के कहे गये हैं ऐसा जानना चाहिये।' 'जत्थेव बायर पुढयीकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्व वायर पुढचीकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्जत्ता' इसीलिये ऐला यह स्कृन कहा गया है जहां पर पर्याप्त बादन पृथिवीमाथिकों के स्थान हैं वहीं पर अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिकों के स्थान है । 'उवधाएणं सबलोए, समुग्धाएणं तयितु स्वस्थान 'भ तोमणुम्स खेत्ता' मन्तमनुष्य क्षेत्र छ मारवाय કાચિકેનું સ્વાસ્થાન સાત ઘનવાત વિગેરે છે. બાદર વનસ્પતિકાયિકનું સ્થાન 'सत्तसु घणोदहीसु' सात धाधिपात सय छ त्यहि 'उवाय समुग्याय सद्राणाणि जहा सेसि चेव अपज्जत्तगाण बायराण" ५पात, समुद्धात, मन વસ્થાન એ બધા જે પ્રમાણે પર્યાપ્ત બાદર એકઈન્દ્રિયવાળા જીના કહ્યા છે, એ જ પ્રમાણે આ અપર્યાપ્તક બાદર પૃથ્વીકાયિક વિગેરેના પણ કહેલા छ. तम समा 'जत्येव वायरपुढवी काइएणं पज्जत्तगाण ठाणा तत्थेव वायर पुढवीझाइयाण अपजत्तगाण ठाणा पण्णत्ता' मे भाट १ मा प्रमाणेन આ સૂત્ર કહેલ છે. જ્યાં પર્યાપ્ત બાદર પૃથ્વીકાયિકેતુ સ્વસ્થાન છે, ત્યાં જ अपर्याप्त मा४२ पृथ्वीजयिनु स्थान छे. 'उववाएण सव्यलोए समुग्धारण
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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