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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०७ दक्षिणचरमान्त उत्पातनि० ४२१ पश्चिमे एव चरमान्ते उत्पद्यमानानां यथा स्वस्थाने उपपात: कथित स्तथैव एफसामयिक विग्रहादारभ्य यावत् चतुःसामयिको विग्रहो व्यावर्णनीय इति । 'उत्तरिल्ले उववज्जमाणाणं एगसमइओ विग्गहो नस्थि सेसं तहेव' पश्चिमे समवहताना मुत्तरे लोकचरमान्ते समुत्पद्यमानानामेकसामयिको विग्रहो नास्तिन भवति, द्वि त्रि चतुःसामयिकविग्रहास्तु सन्त्येव, शेषम्-उपपातमकारादिकं सर्व तु पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति । 'पुरथिमिल्ले जहा सहाणे' पाश्चात्ये समवहतानां पौरस्त्ये पूर्वचरमान्तविषये उत्पद्यमानानां यथा-स्वस्थाने समुद्घातो. पपातयोरेक स्थानरूपे कथितं तथैव इहापि सर्व ज्ञातव्यमिति । 'दाहिणिल्ले करके पश्चिम ही चरमान्त में उत्पन्न हुए पृथिवीकायिक आदि जीवों के सम्बन्ध में जैसा उपपात स्वस्थान में कहा गया है उसी प्रकार से वह वहाँ एक समयवाला यावत् चार समयवाला होता है ऐसा कह लेना चाहिये । 'उत्तरिल्ले उववज्जमाणाणं एगसमाओ विग्गहो नस्थि-सेसं तहेव' पश्चिम दिशा से लमवहत हुए जीवों के उत्तर चरमान्त में उपपात होने पर वहां उनके उपपात में एकसमयवाला विग्रह नहीं होता है किन्तु दो समयवाला यावत् चार समयवाला विग्रह होता है। थाक्रीका और सघ उपपात प्रकार आदि का कथन पूर्वोक्त जैसा ही है। 'पुरथिमिल्ले जहा सहाणे' पश्चिम चरमान्त में समवहत हुए जीवों के पूर्वचरमान्त में उत्पन्न होने पर वहां स्वस्थान के उत्पाद के जैसा उत्पाद कहना चाहिये । अर्थात् वे जीव वहाँ एकसमयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होते हैं दो समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होते हैं तीनसमથયેલા પૃથ્વીકાયિક વિગેરે જીવેના સમ્બન્ધમાં સ્વાસ્થાનમાં જે રીતે ઉપપાત કહેલ છે, એ જ રીતે તે ત્યાં એક સમયવાળે યાવત્ ચાર સમયવાળો હોય छ. म सभा'. 'उत्तरिल्ले उववज्जमाणाण एगसमइयो विगहो नस्थि सेस तदेव पश्चिम दिशामा समुद्धात ४२॥ ७वान। पात उत्तर य२भान्तमा થાય ત્યારે ત્યાં તેના ઉપપાતમાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિ હતી નથી. પરંa. બે સમયવાળી ચાવત્ ચાર સમયવાળી વિરહગતિ હોય છે. બાકીનું ઉપન્યાત विर सघ ४थन पडतi sal प्रभानु छ. 'पुरस्थिमिल्ले जहा सदाणे' પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં સમુદ્દઘાત કરેલા જીવ પૂર્વ ચરમાતમાં ઉત્પન્ન થાય ત્યારે ત્યાં સ્વસ્થાનના ઉત્પાદના કથન પ્રમાણે ઉપપદ કહેવો જોઈએ. અર્થાત તે જો ત્યાં એક સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન થાય છે, બે સમય વાળી વિગ્રહગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, ત્રણ સમયવાળી વિગ્રહગતિથી પણ
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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