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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श.१ सू०७ दक्षिणचरमान्त उत्पातनि० १९ ऽपि वक्तव्य इति । परन्तु पूर्वापेक्षया यद् वैलक्षण्यं तदर्शयति 'नवरं' इत्यादि 'नवरं दुसमइय-तिसमइय-चउसमइय विग्गहो' नवरम्-केवलं लक्षण्य मिदमेव यत् द्विसामयिक-त्रिसामयिक-चतुःसामयिको विग्रहो वर्णनीयो न तु एकसामयिको विग्रहोऽत्र सम्भवति। 'सेसं सव' शेपं नवरमित्यादिना यत्कथितं तदतिरिक्तं सर्वमुत्पातमकारादिकं पूर्ववदेव तत्र नास्ति किमपि वैलक्षण्यमिति । 'दाहिणिल्ले समोहओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएयव्यो जहेव सहाणे दक्षिणे लोकचरमान्ते समवहतः उत्तर चरमान्ते उपपातयितव्या, यथैव स्वस्थाने । स्वस्थाने इति यत्र चरमान्ते समवहत स्तत्रैव चरमान्ते उपपातो भवति, तथाविधे स्वस्थाने इति। चरमान्त में भी उपपात कह लेना चाहिये। परन्तु पूर्व के प्रकरण की अपेक्षा जो इस प्रकरण में अन्तर है वह 'नवरं दुसमइए य तिसमय चउसमय विग्यहो' इस सत्रपाठ द्वारा प्रकट किया गया है अर्थात इस प्रकरण में केवल एक समयवाला विग्रह नहीं कहना चाहिये। किन्तु दो समयवाला तीन लमयवाला और चारसमयवाला विग्रह कहना चाहिये। एकसमयवाला विग्रह यहां संचित नहीं हो सकने से वक्तव्य नहीं कहा गया है। 'लेसं तहेव' इसके अतिरिक्त और लय उपपातादि सम्बन्धी कथन और उपपात पूर्वोदित जैसा ही है। उसमें कोई अन्तर नहीं। 'दाहिणिल्ले लमोहओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएयव्वो जहेव सट्टाणे' स्वस्थान के जैला दक्षिण चरमान्त में मरण और उत्तर चरमा न्तमें उपपात कहना चाहिए । जिल चस्मान्त में समवहत 'समुदघात' हुआ जीव उसी चामान्त में जो उत्पन्न होता है वह स्वस्थान हैચરમાન્તમાં પણ કહેવું જોઈએ પર તુ પહેલાના કથનની અપેક્ષાએ આ प्र४२६मारे मत२-३२३२ छ, a 'नवरं दुसमइय तिसमइय चउसमइय विगहो' मा सूत्रा४ ६२ प्रगट ४२पामा मावल छे. मर्यात मा ४२१मा કેવળ એક સમયવાળી વિગ્રહગતિ કહેવી ન જોઈએ પરંતુ બે સમય, ત્રણ સમય અને ચાર સમયની વિગ્રહગતિ કહેવી જોઈએ. એક સમયવાળી विगति माडियां समवित न थJशपाथी ते ४थन ४घु नथी, 'सेस तहेव' म। 3थन शिवाय ७५५iत विशे२ सघणु थन मन ५यातना र पडता हा प्रभारी ४ छे तमा १ ३२२ ४९१ नथी. 'दाहिणिल्ले समो हओ उत्तरिल्ले चरिमाते उबवाएयव्बो जहेव सोणे' स्वस्थानना ४थन प्रभारी દક્ષિણ ચરમાન્તમાં મરણ અને ઉત્તર ચરમાન્તમા ઉપપાત કહે જોઈએ. જે ચરમાન્તમા સમૃઘાત કરેલ જીવ એજ અરમાન્તમાં જે ઉત્પન્ન થાય છે, તે વથાન કહેવાય છે. જેમ કે લેકના પૂર્વ ચરમાતમાં સમુદ્રઘાત કરેલ છે
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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