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________________ ३६६ भंगवतीसूत्र मनुष्यक्षेत्रे इत्यर्थः समवहत्य सारणान्तिकसमुद्घातं कृत्वा मृत्वेत्यर्थः, द्वितीयायाः य पृथिव्याः शर्करामभाया इत्यर्थः, पाश्चात्ये चस्मान्ते 'पुढवीकाइएसु चउब्दिहेसु' पृथिवीकायि के पु चतुर्विधेषु अपर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त सूक्ष्माऽपर्याप्त बादरपर्याप्तवादर पृथिवी कायिकरूपेषु, तथा-'भाउकाइएसु चउबिहेसु' अप्कायिकेषु अपर्याप्तादि चतुर्विधेषु तथा 'तेउकाइएसु दुविहेसु' तेजस्कायिकेपु द्विविधेषु अपर्याप्त सूक्ष्म भेदभिन्नेषु, तथा-'वाउकाइएसु च उबिहेसु' वायुकायिकेषु चतुर्विधेषु तथा-'दणस्सइकाइए सु चउनि हेसु' वनस्पतिकायिकेषु चतुर्विधेषु 'उत्रवज्जति' उत्पद्यन्ते, अपर्याप्तकपर्याप्तकाः वादरतेजस्कायिका एषु अधिक रणेषु समुत्पत्तिं लभन्ते, 'तेवि एवं चेव दुममइएण चा, तिसमइएण वा विग्गहेण उपवाएयव्या' सेऽप एकमेव द्विसायिकेन वा, त्रिसामरिकेन वा विग्रहेण सक और अपर्याप्तक बादद लेजस्मायिक जीव समक्षेत्र में-मनुष्यक्षेत्र में भारणान्तिक लसुद्धात ले मरण करके शशिप्रभा के पाश्च त्य चरमान्त में चारों प्रसार के-अपर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त सूक्षम, अपर्याप्त बादर और पर्याप्त बादर-पृथिवीकायिकों में तथा 'आउक्काइएसु चब्धिहेसु' अपर्याप्तकादि चारों भेदकाले अपमाथिको 'तेउकाइएसु दुविहेतु' तथा-अपर्याप्त स्वक्षा एवं पर्याप्त सूक्ष्म दो भेद वाले तेज. स्काधिकों में तथा-'बाउक काइए पन्धि हेतु' चारों प्रकार के वायुका. घिकों में तथा-वणहम्मइकाइएचबिहेसु' चारों प्रकारके वनस्पति कामित्रों में 'उपयजलि' उत्पन्न होते हैं, वे इली प्रकार ले वहां दो समयवाले विग्रह ले अथवा तीन सयवाले विग्रह से उत्पन्न होते हैं 'ते वि एवं चेत्र' जिस प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकका अपर्याप्त ક્ષેત્રમા, મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં ભારણુંન્તિક સમુદ્રઘાતથી મરણ પામીને શર્કરા પ્રભાના પશ્ચિમ ચરમાન્તમાં ચારે પ્રકારના–એટલે કે–પર્યાપ્ત સૂમ, અપર્યાપ્તસૂમ, अपर्याप्त मा६२ ५५ति मा२-पृथ्वीमि तथा 'आउकाइएसु घरविहेसु' मर्याप्त विणेरे यारे से मयिमा उक्काइएसु दुविहेसु' તથા અપર્યાપ્ત સૂક્ષમ અને પર્યાપ્ત સૂક્ષમ બે ભેદવાળા તેજરકાચિકેમાં તથા 'वाउकाइएसु चउबिहेसु' न्यारे २ना वायुयाम तथा 'वणस्सहक्काइएसु घउबिहेसु' खारे प्र४२ना वनस्पति विडीमा 'उववज्जति' उत्पन्न थाय छे. એજ પ્રમાણે તેને ત્યાં બે સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી અથવા ત્રણ સમયपाणी वि गतिथी न थाय छे. 'ते वि एवं चेव'२ प्रभारी अ५५1५1સૂથમ પૃથ્વીકાયિકને અપર્યાપ્ત બાદર તેજસ્કાયિકમાં બે વગેરે સમયવાળી
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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