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________________ भगवती सूत्रे वादरतेजस्कायिकानां मनु क्षेत्रादन्यत्रासम्भवात् मृक्ष्वपर्यानाप योरेव द्वौ भेदौ कथितौ चदरपर्यातापर्याप्तयो स्तेजस्कायियो हो भङ्गौ मनुष्यक्षेत्रम् अधिकृत्याधिमसूत्रे कथयिष्येते इति । तदेवाह - 'अपज्जत वायरउ - काइएणं भंते !' अपर्याप्त चादर तेजम्कायिकः खलु भदन्त । 'मणुम्स खेत्ते समोहए' 'मनुष्यक्षेत्रे समवहत', 'समोदणित्ता जे भविए इसी से स्यणप्पभाए पुढवीए' समद्दत्य यो भव्य एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः, 'पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत सुमपुढवीका इयत्ताए उवरज्जित्तए' पाश्चात्ये- पश्विमे चरमान्ते अपर्याप्त सूक्ष्न पृथिवीकायिकतया पृथिवीकायिकरूपेणेत्यर्थः उत्पत्तुम् ' से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गणं उववज्जेज्जा' स खलु मदन्त ! कवि सामयिकेन इस प्रकार से यहां ४० चालीस भेद होते हैं । ४० । बाइरतेजस्कापिकों का मनुष्यक्षेत्र से बाहर संभव नहीं है वहीं पर इनका सद्भाव है इसलिये यहां उनके सूक्ष्न पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त ऐसे दो ही भेद कहे हैं। बाकी के इनके यादर पर्याप्त और बादर अपर्याप्त से दो भङ्ग मनुष्य क्षेत्र को अधिकृत करके सूत्रकार आगे के सूत्र में कह रहे हैं- 'अपज्जन्त वायर तेउकाइए णं भंते! 'हे भदन्न ! कोई अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक मनुष्य क्षेत्र में मारणान्तिक समुद्घात करके मरा ' और समोहणित्ता' मरकर 'जे भविए' हमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चत्थि मिल्ले चरिते अपजस सुमपुपुढची काहयत्ताए ज्ववज्जित्तए' इस रत्नप्रभा पृथिवी के पूर्व चरमान में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ 'से णं अंते ! कसमइए णं विग्गणं उववज्जेज्जा' तो हे भदन्त ! वह वहां कितने समयवाले विग्रह से અહિયાં ૪૦ ચાળીસ ભેદા થાય છે માદર તેજસ્કાયિકાના મનુષ્યક્ષેત્રની બહાર સાંભવ હાતા નથી. અનુષ્ય ક્ષેત્રમાં જ તે આના સદ્દભાવ છે, તેથી અહિયાં તેએ ના સૂક્ષ્મ અપર્યાપ્ત અને સૂક્ષ્મ પર્યાપ્ત એવા એ જ ભેદો કહ્યા છે. બાકીના તેના માદર પર્યાપ્ત અને ખાદર અપર્યાપ્ત એ રીતે એ ભંગે મનુષ્ય ક્ષેત્રને અધિકૃત કરીને સૂત્રકાર આગળના સૂત્રમાં કહેશે. 'अपज्जत्त त्रायर तेङकाइरणं भंते! हे भगवन् अर्थ पर्यास बाहर तेस्माथि મનુષ્યક્ષેત્રમાં મારણાન્તિક સમુદ્ધ ત કરીને મરણપામે અને મરીને તે 'इमी से रअप्पा पुढत्रीए पच्चात्थिमिल्ले चरिमते अपज्जत सुहूम पुढवी काइयत्ताए उववज्जित्तर भविए' मा रत्नला पृथ्वीना पूर्वयरभान्तभ पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी पाथी उत्पन्न थवाने योग्य थयो होय 'से ण' भते ! कड् समइएण विग्गण' उबवज्जेज्जा' तो हे भगवान् ते त्यां डेंटला सभयवाणी ૨૪૨
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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