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________________ ३०२ भगवती सूत्रे कम्पगडीओ पन्नत्ताओ' अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेग्यभवसिद्धिकसूक्ष्म पृथिवीकायिकानां भदन्त कवि कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः ? इति प्रश्नः । भगवानाह - 'एवं एएणं' इत्यादि, 'एवं एएणं अभिलावेणं जक्षेत्र ओहियो अनन्तरोववल्लगउद्देओ तहेव जाव वेदेव' एवमेतेन अभिलापेन यथैवधिकोऽनंतरोपपन्नकोदेशकः कथितस्तथैवाऽत्रापि वर्णयितव्यो याद्वेदयन्ति । कर्मप्रकृतीनां सत्ता, बन्धनं वेदनं च अधिकाऽनन्तरोपपन्नकोद्देशक कथितमेव वेदितव्यम् इति भावः ' एवं एएणं अभिलावेणं एक्कारसवि उद्देसगा तदेव भाणियव्वा, जहा ओहिय सर जाव अचरमेत्ति' एवमेतेन अभिलापेन एकादशाऽपि उद्देशका स्तथैव भणितया यथा औधिकशते यावत् अचरम इति । एवम् उपरिदर्शितप्रकारेण परंपरोपभंते ! कइकम्म पगडीओ पन्नन्ताओ' हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णऐश्य भवसिद्धिक सूक्ष्म पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय जीवों के कितनी कर्म प्रकृतियां कही गई है ? 'गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेणं जहेब ओहिओ अनंतगेववन्नग उद्देसओ तहेब जाव वेदेति' हे गौतम! इस सम्बन्ध में जैसा इस अभिलाप द्वारा औधिक उद्देशक - सामान्य रूप से अनन्तरोपपत्रक उदेशक कहा गया है उसी प्रकार से यहां पर 'भी यावत् वेदन सूत्र तक सब कथन करना चाहिये । अर्थात् कर्मप्रकृतियों की लत्ता, उनका बन्धन और वेदन जैसा औधिक अनन्तरोपपद्मक उद्देशक में कहा गया है वही सब यहां पर भी समझना चाहिये । 'एवं एएणं अभिलावेणं एक्कारस वि उद्देसमा तहेव भाणियव्वा' जहाँ ओहिय सए जाव अचरिमोत्ति' हम प्रकार अभिलाप द्वारा ११ उद्देशक उसी प्रकार से कहना चाहिये जैसे कि वे औधिक शतक में कंम्मपगडी पचाओ' हे भगवन अनंतशेपपन ष्णुश्यावाणा लवसिद्धि સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક એકેન્દ્રિ જીવાને કેટલી કમ`પ્રકૃતિયા કડેવામાં આવેલ છે ? 'गोयमा ! एवं एएणं अभिलावेण जहेव ओहिओ अनंतशेववण्णग उद्देसओ तहेव 'जाव वेदेति' हे गौतम! म सधमां ? प्रमामा अलिस द्वारा ઔઘિક ઉદ્દેશામાં એટલે કે સામાન્ય રૂપથી અનંતરે પપન્નક ઉદ્દેશા કહેલ છે. એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ યાવત્ “વેદન સૂત્ર સુધી સઘળુ કથન કહેવુ' જોઈ એ. અર્થાત્ કમ પ્રકૃતિયેાની સત્તા, તેમનુ બંધન અને તેમનુ' વેઢન જે રીતે ઔદ્યિક ઉદ્દેશામાં કહેવામાં આવેલ છે, એ સઘળુ કથન અહિયાં પણ સમજી લેવું. ' एवं एएणं' अभिलावेण एक्कारसवि उद्देसवा तहेव भाणियव्वा' जहा ओहियसए जाव अचरिमोत्ति' मा प्रमाणे मा मलिदाय द्वारा अगियार - આ પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ સમજી લેવા. એટલે જે પ્રમાણે ઓશિક
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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