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________________ चन्द्रिका टीका २०३३ अ. श. २०१ कृष्णलेश्याद्येकेन्द्रियनिरूपणम् २८७ रूपः प्रथमोदेशकः कथित स्वथैव तेनैव प्रकारेण इहापि ज्ञातव्यो यावद् वेदय यन्ति इति । अत्र यावत्पदेन - तेषां जीवाना मष्टकर्मप्रकृतयो भवन्ति, ते च सप्त अष्टौ वा वनन्ति चतुर्दश च वेदयन्तीति संग्रहो वाच्यः । ' एवं एरणं अभि लावेणं जब ओहिए एगिदियसए एक्कारस उद्देसमा भणिया तब कण्हलेस्स स विभाणियव्वा जाव अचरिम कण्हलेस्सा एगिदिया' एग्स्-एतेन अभिलापेन यथैव औधिके एकेन्द्रियशते एकादशोदेशका भणिता स्तथैव कृष्णलेश्यशतेऽपि एकादशोदेशका भणितव्या यावद् अचरम कृष्णलेल्या एकेन्द्रियाः । औधिककृष्णले श्यै केन्द्रियानन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यै केन्द्रियरूपो देशद्वयव देव सामान्य रूप प्रथम उद्देशक कहा गया है उसी प्रकार से यहां यावत् वेदन सूत्र तक जानना चाहिये, वहां यावत् पद से इस कथन का संग्रह हुआ है कि-'उन जीवों में आठ कर्म प्रकृतियां होती हैं, वे सात या आठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । १४ चौदह कर्मप्रकृतियों का वेदन करते है । 'एवं एएणं अभिलाषेण जहेव ओहिए एगिंदिवस एक्कारस उद्देगा भणिया तच चणस्स सए वि भाणियव्वा जाव अचरिम कण्हलेस्ला एगिंदिया' इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा जैसे सामान्य रूप एकेन्द्रिय शतक में ११ उद्देशक कहे गये हैं उसी प्रकार से कृष्णलेड्यावाले एकेन्द्रिय शतक में ११ उद्देशक कहना चाहिये, जैसे सामान्य रूप कृष्णलेश्यावालों का एक सामान्य उद्देशक, अनन्तरोपपत्रक कृष्णलेइयावालों का द्वितीय उद्देशक है, इसी प्रकार से पर परोपपत्रक कृष्णलेइद्याबाले एकेन्द्रियों का तृतीय प्रदेशक वेहन ४रे छे. 'एवं આવ્યા છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ યાવત્ વેઇન સૂત્ર સુધીનું કથન સમજી લેવુ. અહિયાં યાવતપથી નીચે પ્રમાણેના કથનનેા સ’ગ્રહ થયા છે, જેમકે-તે જીવાને આઠ કમ પ્રકૃતિએ હાય છે તે સાત અથવા આઠે अध रे छे तथा थौ अमृतियो जव ओहिए एवंदियसए एक्कारस उद्देसगा भणिया तहेव भाfotoat जाव अरिम कण्ड्लेस्स एगि दिया' या अलिसा રૂપ એકેન્દ્રિય શતકમાં જે પ્રમાણે અગિયાર ૧૧ ઉદ્દેશાએ કહેવામાં આવ્યા છે. એજ પ્રમાણેના અગિયાર ઉદ્દેશાઓ આ કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા શતકમાં પણ અચરમ કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા એકેન્દ્રિયના કથન સુધીના ૧૧ ઉદ્દેશાઓ કહેવા જોઈ એ. જેમ કે-સામાન્ય કૃષ્ણલેશ્યાવાળાના એક સામાન્ય ઉદ્દેશે. ૧ અને અન તરાપપન્ના કૃષ્ણલેશ્યાવાળાના ખીન્ને ઉદ્દેશ છે . એજ પ્રમાણે પર‘પાપપદ્મક કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા એકન્દ્રિયાના સTMબધમાં ત્રીજો ઉદ્દેશા કહ્યો છે. કમ પ્રકૃતિયાના एएण अभिलावेण कण्ह लैस्सए वि द्वारा सामान्य
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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