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________________ प्रेमयचन्द्रिका टीका श०३३ उ.२ सू०१ अनन्तरोपपन्नक ऐ० निरूपणम् ३६१ एवं यावत्-अनन्तरोपपन्नक वादरवनस्पति कायिकानामिति । अत्र यावत्पदेन अनन्तरोपपन्नकसूक्ष्मवादराऽकायिकानाम् अनन्तरोपपन्नकसूक्ष्मवादरतेजस्कायिकानाम् अनन्तरोपपन्नकमूक्ष्मवादरवायुकायिकानां संग्रहो भवति, 'अणंतरोववन्नग सुहम पुढवीकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ बंधति' अनन्तरोपपत्रक सूक्ष्मपृथिवी कायिकैकेन्द्रियजीवाः खलु भदन्त ! कति कर्मप्रकृति वंधनन्ति ? भगवानाइ'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अउज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधति आयुष्कवर्जाः सप्त कर्मप्रकृतीः ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-वेदनीय-मोइनीयनाम-गोत्राऽन्तरायरूपा बध्नन्ति उत्पत्तेः प्रथमसमये आयुष्कर्मणो बन्धाभावात सरोववन्नगा पायरवणस्सहकाइयाणत्ति' इसी प्रकार का कथन यावत् अनन्तरोपपन्नक बादर वनस्पतिकायिकों तक के जीवों के जानना चाहिये, यहां यावत्पद से 'अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म घादर अफायिक, अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्मवादरतेजस्कायिक, अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पादर वायुकायिक और सूक्ष्म बादरवनस्पतिकायिक इन सब का ग्रहण हा है। 'अणंतरोववन्नगा सुहुम पुढवीकाइयाण भते! कह कम्मपगडीओ बंधंति' हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्मपृथिवीकायिकों को कितनी कर्म प्रकृतियों का बन्ध होती हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! आउवजनाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधति' हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय जीव आयुकर्म को छोड़कर शेष 'सात कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शना. वरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम गोत्र और अन्तराय इन सात कर्म सा मा भी प्रतिया डोय छे. 'एव जाव अणंतरोववन्नगा बायरवणस्सइ. काइयाण त्ति' मा प्रभारी नु ४थन यावत् अनतरायप-न मा२ वनस्पति કાયિક સુધીના જીના સંબંધમાં પણ સમજવું. અહિયાં યાત્પદથી અનંતરોપપન્નક સૂક્ષ્મબાદર અષ્કાયિક અનંતરપપનક સૂમ બાદરતેજસ્કાયિક, અનંતપન્નક સૂમ બાદરવાયુકાયિક, અને સૂક્ષ્મબાદરવનસ્પનિકાયિક या मधा ग्रह ४२राय छे. 'अणंतरोववन्नगसुहुमपुढवीकाइया णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ वधति' 3 सगवन् मन तरे।५पन्न सूक्ष्म जीवित કેટલી કમ પ્રકૃતિને બધ કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે ४-'गोयमा! आउवज्जाओ सत्त कम्प्रपगडीओ बधति' है गीतमा અનંતરોપપન્નકસૂમ પૃથ્વીકાયિક એકેન્દ્રિય છે આયુકર્મને છેડીને બાકીની સાત કર્મ પ્રકૃતિને બંધ કરે છે, અર્થાત્ જ્ઞાનાવરણીય દર્શનાવરણીય, વેદનીય, મેહનીય, નામ, ગેત્ર અને અંતરાય આ સાત કર્મ પ્રકૃતિને તેઓ
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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