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________________ भगवती संग्रहो भवति । तथा च अपर्याप्त सूक्ष्माऽकायिकादारभ्याऽपर्याप्तबादर वनस्पतिजीवपर्यान्तानां कर्मबन्धविषये पृथिवीकायिकवदेव व्यवस्था ज्ञातव्या आळापत्रकारस्तु स्वयमूहनीयः एतदग्रेतन पर्याप्तवादरवनस्पतिकायिकसूत्रं सूत्रकारः स्वयमेवाह - 'पज्जत वायरवणस्सइकाइया णं' इत्यादि, 'पज्जतमायरarrasकाइयाणं भंते! कइ कम्मपगडीओ वंर्धति' पर्याप्तवादरवनस्पतिकायिकाः खलु भदन्त ! कति कर्मप्रकृती वध्नन्ति १ उत्तरमाह - ' एवं चेत्र' एवमेव पर्याप्त बादरपृथिवीकायिकवदेव कर्मप्रकृतिबन्धनविषये व्यवस्था ज्ञातव्येति । अथ कर्म प्रकृतिवेदन चिपये माह-' अपनत्त०' इत्यादि । 'अपज्जत सुहुमपुढवि कायिक, अपर्याप्त चादर वायुकायिक, पर्याप्त चादर वायुकायिक, अपर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकाधिक, पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और अपर्याप्त चादर वनस्पतिकायिक 'इन सब के प्रश्नोत्तरोका प्रहण हुआ है । जैसे अपर्याप्त सूक्ष्म अकायिक से लेकर अपर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक तक के जीवों के कर्मबन्ध के विषय में पृथिवीकाधिक के जैसी ही व्यवस्था जाननी चाहिये । इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार स्वयं ही उद्भावित करना चाहिये । पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक के विषय में सूत्रकार स्वयं सूत्र कहते हैं 'पज्जन्त' इत्यादि 'पज्जन्त बायरवणस्सइकाइयाणं भते ! कह कम्पगडीओ बंधत' हे भदन्त ! पर्याप्त वादर वनस्पतिकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते है ? ' एवं 'चेव' हे गौतम ! इस सम्बन्ध में पर्याप्त बाद पृथिवीकायिक के जैसे ही कर्म प्रकृति के बन्ध के विषय में व्यवस्था जाननी चाहिये । 'अपज्जन्त सुम पुढविक्काइयाण' भते !' हे भदन्त ! अपर्या माथि, अपर्याप्त, नाहर, वायुभय, पर्याप्त माहर वायुभय, अपर्याप्त સૂક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિક, પર્યાપ્ત સુક્ષ્મ વનસ્પતિકાયિક, અને અપર્યાપ્ત ખદર વનસ્પતિકાયિક આ સઘળા ગ્રહણ કરાયા છે. તથા અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ અપૂ કાયિકથી લઈ ને અપર્યાપ્ત બાદર વનસ્પતિકાયિક સુધીના જીવાના ક્રમ મધના સબધમાં પૃથ્વિીકાયિકના કથન પ્રમાણે આલાપના પ્રકાર સ્વય′ અનાવીને સમજી લેવા. પર્યાપ્ત ખાદર વનસ્પતિકાયિકના સંબંધમાં સૂત્રકા૨ નીચેના 'सूत्रपाठ हे छे. 'पज्जत्तवायरवणस्सइकाइयाणं भते ! कइ कम्मपगडी तो बंधंति' હું ભગવન પર્યંપ્ત બાદર વનસ્પતિકાયિક જીવ કેટલી કમ` પ્રકૃતિયાના અધ ४२ १ उत्तरमा अनुश्री डे छे डे- 'एव' 'चेव' हे गौतम! या समधिभ અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકના કથન પ્રમાણે જ કમ પ્રકૃતિના સમધમાં ईथन सभ क 'ret सुम पुढवीकाइयाणं भते' हे भगवन मथर्यास सूक्ष्म पृथ्वी
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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