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________________ ૨૪ भगवतीमा जीवानामपि पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदेन द्वैविध्यं ज्ञातव्यमिति । ‘एवं आँउक्काइया वि चउक्कएणं भेएणं भाणियवा' एवं-पृथिवीकायिकवदेव, अकायिका अपि चतुष्केग भेदेन भणितव्या। सूक्ष्मवादरपर्याप्ताऽपर्याप्तभेदात् 'एवं जाव-त्रणस्सइकाइया' एवं यावद् वनस्पतिकायिकाः, अत्र यावत्प देन तेजस्कापिक-वायुकायिकयोः संग्रहो भवति । तथा च-पृथिव्य. 'एकायिकययोर्यथा चत्वारो भेदाः कथिताः तथैव-तेजस्कायिकादारभ्य वनस्पतिकायिकान्तैकेन्द्रियजीवानामपि सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्याप्तात्मकाश्चत्वारो मेदा ज्ञातव्या इति । अथ कर्मप्रकृतिविषयकं सूत्रमाह-'अपज्जत' इत्यादि, 'अपमत्त "मुहुमपुढवीकाइयाणं भंते' अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त ! 'कइ कम्मपग'डीओ पन्नत्ताओ' कति कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। एवं आउक्काइया वि चउक्कएण भेएणं भाणियन्त्रा' पृथिवीकायिक के जैसे अपकायिक भी सूक्ष्म, यादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक के मेद से चार प्रकार के कहे गये जानना चाहिये । 'एवं जाव वणस्सइकाइया' • इसी प्रकार से यावत् वनस्पतिकायिक भी सूक्ष्म, चादर, पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद ले चार प्रकार के कहे गये जानना चाहिये यावरंपद से तेजस्कायिक और वायुकाधिक इन दो का ग्रहण हुआ है। तथा च पृथिवीकायिक के जिस प्रकार से चार भेद कहे हैं उसी प्रकार से तेजस्कायिक से लेकर वनस्पतिकायिकान्त एकेन्द्रिय के भी चार चार भेद हैं ऐसा जानना चाहिये। ___ 'अपज्जन्त सुहम पुढवी काइयाण भंते ! कइम्म पगडीभी पन्नत्ताओ' हे भदन्त ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीवों के कितनी भर्यासना मेथी ४१२ना हा छ. 'एव आउक्काइया वि चउक्कएण भेएणं भाणियव्या' पृथ्वी विना थन प्रमाणे मयि ५५ सूक्ष्म, ४२, पर्यात અને અપર્યાપ્તના ભેદથી ચાર પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે. તેમ સમજવું. 'एवं जाव वणस्सइकाइया' मा प्रमाणे यावत वनस्पतिथि: ५५ सूक्ष्म બાદર પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના ભેદથી ચાર પ્રકારના કહ્યા છે. તેમ સમજવું. અહિયાં યાવત્પદથી તેજસ્કાયિક અને વાયુકાયિક એ બે ગ્રહણ કરાયા છે. તે આ પ્રમાણે–પૃથ્વીકાયિકના ચાર ભેદે જે રીતે બતાવ્યા છે. એ જ પ્રમાણે તેજસ્કાયિકથી લઈને વનસ્પતિકાયિક સુધીના એક ઈન્દ્રિયવાળા 'જીવના પણ ચાર ભેદ સમજવા. 'अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइयाण भते । कइ कम्मपगडीओ पनत्ताओ' 3 ભગવદ્ અપર્યાપક સૂક્ષમ પૃથ્વીકાયિક જીને કેટલી કર્મ પ્રકૃતિ કહેવામાં
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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