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________________ २३२ - - भगवतीस्त्र पश्नस्य पतिवचनावमरे पञ्चविंशतिशतकस्याऽष्टमोद्देशकस्य भाव इहानुकरणीयः अर्थद्वारेण स एव उद्देशक इह पठनीयः । 'रयणप्पभापुढवि खुड्डांगकडा०' रत्नप्रभा पृथिवी क्षुल्लक-कृतयुग्म प्रमाणका नारकास्तुत उद्वर्य कुत्र गच्छन्ति जुत्रोत्पद्यन्ते कि नैरयिकेषु उत्पधन्ते तिर्यग्योनिकेछु बोत्पधन्ते इत्यादि क्रयेण प्रश्नः । उत्तरमाह-एवं' इत्यादि । 'एवं रयणप्पमाएवि' एवं सामान्यतः क्षुल्लककृतयुग्मनारकाणाम् यथोद्वर्तना कथिता, तथैव-रत्नप्रभा पृथिवी नारकजीवाना. मपि उद्वर्तना वक्तव्या । ‘एवंजाब अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् , यथा-रत्नममा प्रथमनारकपृथिवी सम्बन्धिनारकाणामुद्वर्तना कथिता इस प्रश्न के उत्तर में पच्चीस वें शतक के आठवें उद्देशकका भाव यहां वक्तव्य है वही उद्देशक यहां पठनीय है। 'रयणपभा पुढवी खुड्डाग कड' हे सदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी के क्षुल्लक कृतयुग्म प्रमाणक नारक वहां से उद्वर्तना करके कहां जाते हैं और कहां उत्पन्न होते हैं ? क्या के नैरपिकों से नैरपिकों में उत्पन्न होते हैं या तिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम । 'एवं रयणपाए वि' जिस प्रकार की उद्वर्तना सामान्य क्षुल्लक कृत युग्म नारकों की कही गई है उसी प्रकार की उद्वर्तना रत्नप्रभा पृथिवी के नारक जीवों की भी वाहनी शहिये । 'एवं जाय हे सत्तमाए' जैसी उद्रतना रत्नप्रभा नामकी प्रथम पृथिवी के नारकों की कही गई है वैसी ही ऊद्रतना शर्कशाप्रमा नाम की द्वितीय पृथिवी क्षुल्लक कृत युग्म राशिप्रमाणक नारकों से लेकर अघालनमी पृथिवी के क्षुल्लक નારક કઈ રીતે ઉદ્વર્તન કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પચ્ચીસમાં શતકના આઠમા ઉદ્દેશાનું કથન અહિયાં કહેવું જોઈએ. તેમ સમજવું 'रयणप्पभा पुढवी खुड्डाग कड० ले मापन रत्नमा थाना क्षु કૃતયુગ્ય પ્રમાણુવાળા નારકે ત્યાંથી ઉદ્વર્તનો કરીને કયાં જાય છે? અને કયાં ઉત્પન્ન થાય છે? શું ? તેઓ નરયિકમાંથી નીકળીને નરયિમાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા તિર્યંચ નિકમાં ઉત્પન્ન થાય છે ? मा प्रश्न उत्तरमा मुश्री ४ छ8-8 गौतम ! 'एवं रयणप्पभाए बि' २ પ્રમાણેની ઉદ્ધના સામાન્ય મુલક કૃતયુગ્મ નારકા વિશે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેની ઉઢના રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારક જીવોની પણ કહેવી नये एवं जाव अहे सत्तमाए' २नमा पृथ्वीना ना ना २ પ્રમાણે કહી છે, એ જ પ્રમાણેની ઉદ્ધતના શર્કરા ભા નામની બીજી પૃથ્વીના લક કૃતયુંમ રાશિ પ્રમાણુ નારક જીવાથી લઈને અધઃસસમી પૃથ્વીના
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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