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________________ भगवतीमत्र उलेश्यजीवानामपि उम्पातो ज्ञातव्यः, न नैगयिकादारगत्य उत्पद्यन्ते किन्तु एथे. न्द्रियतिर्ययोनिदेश्य आगत्य समुत्पधन्ते रत्नममायाँ कापोतळेश्याश्रया नारकाः, तथा गर्भजमनुष्येभ्यश्चागत्योत्पद्यन्ते नो देवेभ्य आगत्य कापोतलेश्याः रत्नप्रभायामुत्पद्यन्ते इत्यादिकं सर्व सामान्यदंड स्वदेव रत्नपमा दंडकेऽपि ज्ञातव्यमिति 'एवं सक्करप्पभाएवि एवं रत्नप्रभावदेव शर्कराममायामपि द्वितीयनारकथिव्यां कापोतछेश्य नारकजीवानामुपपातादि ज्ञातव्यः ‘एवं बालयप्पभाए वि' एवं रत्न प्रभादंडकवदेव बालकाममायामपि तृतीयनारफपृथिव्यां कापोतलेश्याश्रयजीवा. नामुपपातादि तिव्यः । 'एवं चउसु वि जुम्मेसु' एवं चतुष्यपि कृतयुग्मयोजगया है उसी प्रकार से वह प्रथम नारकाश्रित कापोतलेश्य जीवों का भी जानना चाहिये, तथा च-वे नरयिमों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं और ल देशों में से आकर के उत्पन्न शेते हैं किन्तु पञ्चेन्द्रिय तिर्य योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं और गर्भज मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार का यह कथन जैसा कि सामान्य दण्डक में कापोतलेश्याश्रित नारक जीवों के सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही सब कथन इनका रत्नप्रभा दण्डक में भी कहना चाहिये, 'एवं सक्करप्पभाए वि एवं वालुयप्पभाए वि' रत्नप्रभा दण्डक के कथन जैसा कथन शर्क राप्रभा दण्डक में और बालुकाप्रभा दंडक में भी उन कापोतलेश्य नारक जीवों के उत्पाद आदि का जानना चाहिये। 'एवं चउस्सु वि जुम्मेलु' इसी प्रकार से कृतयुग्म, योज द्वापरयुग्म और कल्योज रूप चारों युग्मों में भी उत्पात आदि समझना चाहिये ગૌતમ! સામાન્ય દડકમાં કાતિલેશ્યાવાળા નારક જીવન ઉ૫પાત જે રીતે કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે પ્રથમ નરકોવાળા કાપતેતેશ્યાવાળા જીવે ને ઉપપાત પણ સમજ. તથા તેઓ નૈરયિકોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. તથા દેવમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થતા નથી પરંતુ પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ નિકે માંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે અને ગર્ભજ મનુબેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણેનું આ કથન જે રીતે સામાન્ય દંડકમાં કાતિલેશ્યા વાળા નારક છના સંબંધમાં કહેલ છે. એ જ પ્રમાણે તે સઘળું કથન આ २९ मा ४४मां ५५ ४ नये. 'एवं सकरप्पभाए वि' २त्नमाना કથન પ્રમાણેનું કથન શર્કરા પ્રભા દંડકમાં પણ તે વેશ્યાવાળા નારક છે ના ઉપપાત વિગેરેના સંબંધમાં સમજવું. ___ 'एवं घरसु वि जुम् मेसु' मा प्रभार तयुभ व्यास वा५२ युग्म, भने यो ३५. सारे युग्भमां पर अत्यात विशेष समावा. 'नवरं
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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