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________________ प्रमेन्द्रका टीका २०३१ उ. १ सू०१ चतुर्युग्मनिरूपणम् १७१ यत् कथितं तदेव सर्वं शर्करामभात आरभ्य सप्तमी पृथिवी नारकेषु वक्तव्यमिति रत्नममादिगत क्षुल्लक कृतयुग्मनारकाणामुत्पादादिकं दर्शयन माह - 'खुड्डाग तेओग नेरइया' इत्यादि । 'खुड्डाग तेओग नेरइयाणं भंते ! कओ उत्रवज्जंति' क्षुल्लक ज्योज नैरयिकाः खलु भदन्त ! कुतः - कस्मात्स्थानविशेषादागत्य नरकावासे समुत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, भगवानाह - 'उववाओ' इत्यादि, 'उनवाओ जहा वक्कंतीए' उपपातो यथा व्युत्क्रान्तौ प्रज्ञापनायाः षष्ठे पदे यथा नारकाणामुपपातः कथित स्तेनैव रूपेणात्रापि उपपातो न नैरयिकादिभ्य उत्पद्यन्ते किन्तु पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनि के - भ्यो गर्भजमनुष्येभ्यश्चागत्य समुत्पद्यन्ते एवं वर्णनीयः । ' ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उचवज्जंति' ते खलु भदन्त ! क्षुल्लकत्रयोज नारकजीवा एकसमयेन एकस्मिन् समये कियत्संख्यकाः समुत्पद्यन्ते ? इति मनः, भगवानाह तहेव' इस उपपातादि वर्णन के अतिरिक्त और सब वर्णन औधिक नारक प्रकरण में जैसा कहा गया है वही सब वर्णन शर्कराप्रभा से लेकर सप्तमी पृथिवी के नारकों तक में कहना चाहिये । 'खुड्डाग तेओग नेरइयाणं भंते! कओ उचवज्जंति' हे भदन्त ! क्षुल्लक ज्योजराशि प्रमाण नैरयिक नरकाचासमें कहां से आकर के उत्पन्न होते है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'उबचाओ जहा वक्कनीए' हे गौतम ! प्रज्ञापना के छड्डे व्युत्क्रांति पद में जैसा नारकों का उपपात कहा गया है वैसा ही वह यहां पर भी कहना चाहिये, अर्थात् वे नरयिक आदिकों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों में से और गर्भज मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ऐसा वर्णन यहां पर करना चाहिये । 'ते णं भंते ! जीवा एसमएणं केवढ्या उववશિવાયનું' ખીજું સઘળુ વન બૌધિક નારકના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. તે તમામ વધુ ન શકે`રાપ્રભા પૃથ્વીથી લઈ ને સાતમી તમતમા પૃથ્વીના નાકાના સ મ ધમાં કહેવું જોઈ એ. खुड्डागतेयोग नेरइयाणं भंते ! कथ उववज्जति' हे भगवन शुहसान રાશિપ્રમાણવાળા નૈરયિકા નરકાવાસમાં કયાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ अश्नना उत्तरमां अलुश्री हे छे है- 'उववाओ जहा वक्कंतीए' हे गौतम! अज्ञायना સૂત્રમાં છઠ્ઠા વ્યુત્ક્રાંતિ પદમાં નારકાના ઉત્પાદ જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ કહેવા જોઇ એ. અર્થાત્ તે નૈરિયકા વિગેર માંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ પ ંચેન્દ્રિયતિય ચ ચેાનિકામાંથી અને ગજ મનુષ્ચામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, એ પ્રમાણેનુ' વધુન અહિયાં
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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