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________________ _referrer श०३० उ. १ सू०४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि० १२९ एव न तु अभवसिद्धिका भवन्तीति भावः । 'सागारोवउत्ता अनागारोवउत्ता जहां 'सलेस्सा' साकारोपयुक्ता स्तथा अनाकारोपयुक्ता जीवाः सलेश्य जीववदेव क्रियाबादिनो भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिकाः, अक्रियावादी प्रभृतयखयोऽपि भव'सिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपि भवन्तीति भावः । ' एवं नेरहया वि भाणियन्त्र' एवं सामान्यतो जीववदेव नैरयिका अपि जीवा लेश्यादिभि द्वारे र्भवसिद्धिका5भवसिद्धिकादिरूपेण भणितव्याः । 'नवरं नाथव्वं जं अस्थि' नवरं केवल सामान्य जीवमकरणापेक्षया इदं वैलक्षण्यं यत् यत् लेश्यादिकं द्वारजार्त नारकस्य विद्यते तदेव द्वारजातमाश्रित्य भवसिद्धिकत्वादि विचारणीयमिति । 'एवं असुरकुमारा 'वि जाव यणियकुमारा' एवं नारकदण्डकवदेव असुरकुमारादारभ्य स्तनितकुमारसम्मदिट्ठी' सम्यकदृष्टि जीवों के जैसे अयोगी जीव भवसिद्धिक होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। 'सागारोवउत्ता अनागारोवता जहा सहसा 'साकारोपयुक्त तथा अनाकारोपयुक्त जीव सलेश्य जीवों के 'जैसे क्रियावादी अवस्था में भवसिद्धिक होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। तथा ये ही अक्रियावादी, अज्ञानिकवादि और वैनयिकवादी अवस्था में भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं। ' एवं नेरइया वि भाणियव्वा' सामान्य जीव के जैसे ही नैरयिक भी लेइयादि द्वारों को लेकर भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक रूप से कहना चाहिये। 'नवर' नायव्वं ज अस्थि' परन्तु सामान्य जीव प्रकरण की अपेक्षा से विशेषता केवल इतनी सी ही है कि जो लेइयादिक द्वार नारक के हो उसी द्वार को लेकर भवसिद्धिक आदिका विचार करना चाहिये 'एवं असुरकुमारावि जाव थणियकुमारा' नारक दण्डक के जैसे ही 'अजोगी जहा सम्मदिट्ठी' सभ्यगृहेष्टिवाणा लवना उथन प्रभाो गयोगी षो अवसिद्धि होय छे, अलवसिद्धि होता नथी 'सागारोवउत्ता अनागारोव उत्ता जहा सलेप्सो' साठारे पियोगवाणा भने अनायियोगवाजा कवी बेश्याવાળા જીવેાના કથન પ્રમાણે ક્રિયાવાદી અવસ્થામાં ભવસિદ્ધિક જ હોય છે, અભવસિદ્ધિક હૈ।તા નથી તથા આ ક્રિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી અને વૈનિયકવાદી અવસ્થામાં ભવસિદ્ધિક પણ હોય છે, અને અભવસિદ્ધિક પણ હોય છે. 'ए' नेरइया वि भाणियव्वा' સામાન્ય જીવના કથન પ્રમાણે નેંરયિકા પણ લેશ્યા વિગેરે દ્વારાને લઈને ભવસિદ્ધિક અને અભવસિદ્ધિક જ ઢાય છે. તેમ समवु' 'नवर' नायन्त्र' जं अस्थि' परंतु सामान्य व अभ्रणुनी अपेक्षाथी કેવળ એજ વિશેષપણુ છે કે-નારકતા જે લેસ્યા વિગેરે દ્વારા હાય એન્જ द्वाशेने सঘने अवसिद्धिः विगेरेनो वियार ४२वो लेई को, 'एव' असुरकुमारा 2 भ० १७
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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