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________________ मैन्द्रिका टीका श०३० उ० १ सू०४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि० १२७ नो संज्ञोपयुक्ता जीवा भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिका भवन्तीति भावः । 'सवेदना जाब नपुं सगवेदगा जहा सलेस्सा' सवेदका यावत् नपुंसक वेदकाः यथा सलेश्याः er या पदेन स्त्रीपुरुषवेदकयोः संग्रहः तथा च सवेदकादारभ्य नपुंसक वेद. कान्ताः सर्वेऽपि सलेश्यवदेव क्रियावादिनो भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिकाः, अक्रियावादि प्रभृतयस्तु भवसिद्धिका अपि अभवसिद्धिका अपि भवन्तीति भावः । . 'अवेयगा जहा सम्मदिट्टी' अवेदका यथा सम्यग्दृष्टयः सम्यग्दृष्टिवदेव सामान्यतो वेदरहिताः क्रियावादिनो भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिका भवन्तीति । 'सकसाई जाव लोभकसाई जहा सलेस्सा' सकषायिनो यावत् लोभकपायिनो सम्मदिट्टि' नो संज्ञोपयुक्त जीव सम्यग्दृष्टि के जैसे क्रियावादी अबस्था होने से भवसिद्धिक होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं होते हैं । 'सवेद्गा जाव नपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा' सवेदक से लेकर नपुंसक वेद तक समस्त जीव सलेश्य जीवों के जैसे क्रियावादी अवस्था में भवसिद्धिक होते है अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। यहां यावत्पद से स्त्री वेदों और पुरुषवेदकों का ग्रहण हुआ है। तथा अक्रियावादी अज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी अवस्था में ये सब भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं । 'अवेयगा जहा सम्मदिट्टी' अवेदक सम्यग्दृष्टि के जैसे ही क्रियावादी होने से भसद्धिक होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। 'सकसाई जाय लोभकसाई जहा सलेस्सा' सकषायी यावत् लोभकषायी जीव सलेश्य जीवों के जैसे ही क्रियावादी अवस्था में भवसिद्धिक होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। यहां ના સાયે ગવાળા જીવે! સમ્યગ્દૃષ્ટિવાળા જીવેાના કથન પ્રમણે ક્રિયાવાદી अवस्थामां लवसिद्धिए हाय है. अभवसिद्धिए होता नथी 'सवेद्गा जाव नपुचगवेद्गा जहा सलेस्सा' वेदवाना सवेह लोथी सधने नपुं सम्वेह सुधीना सधणा જીવે લેશ્યાવાળા જીવાના કથન પ્રમાણે ક્રિયાવાદી અવસ્થામાં ભવસિદ્ધિક હોય છે અભસિદ્ધિક હોતા નથી. અહિયાં યાવપદથી વેઢવાળા અને પુરૂષવેદવાળા ગ્રહણુ કરાયા છે તથા અક્રિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી, અને વૈનયિકવાદી અવસ્થામાં सा गधा लवसिद्धि पायु होय छे, भने अलवसिद्धि पशु होय हे 'अवेयगा जाव सम्मदिट्ठि' अनेঃ४ त्र सभ्यद्दृष्टिवाणा ना उथन प्रमाडियावाही अवस्थाभां लवसिद्धि होय छे. अभवसिद्धि होता नथी 'सकलाई जाव लोभकसाई जहा स्वलेस्सा' सम्षायी यावत् सोल षायवाजा वे बेश्या• વાળા જીવાના કથન પ્રમાણે ક્રિયાવાદી અવસ્થામાં ભસિદ્ધિક હોય છે.
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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