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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ सू०४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि० १२३ वसिद्धिया' पुच्छा सलेश्याः खलु भदन्त ! अक्रि मावादिनो जीवा किं भवसिद्धिका अभवसिद्धिका भदन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृहाते। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'भवसिद्धिया दि अभवसिद्धिया वि' सलेश्याः अक्रियावादिनो, जीवाः भवसिद्धिका अपि भवन्ति अभत्रसिद्धिका वा भवन्तीति । एवं अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि' एवं सलेश्याऽ क्रिसावादि जीववदेव अज्ञानिकवादिनोऽपि वैनयिकवादिनोऽपि भवसिद्धिका अपि भवन्ति अभवसिद्धिका अपि भवन्ति । 'एवं जाव सुकलेस्सा' यथा सलेश्याः क्रियावादिनोऽक्रियावादिनश्च सथिता स्तथैव यावत् शुक्ललेश्याः, अत्र यावत्पदेन कृष्णनीलकापोततेजः पद्मलेगाना: संग्रहो भवतीति तथाच छष्णलेश्यात आरभ्य शुक्ललेशान्ताः क्रियावादिनो जीवा भवसिद्धिका नो अभवसिद्धिका भवन्ति तथा अक्रियावादिनः कृष्णलेश्यात आरभ्य शुक्ललेग्यान्ताः सर्वेऽपि जीव भवसिद्धिकाश्च भवन्ति अभवसिद्धिकाश्चापि भवन्तीति भावः । 'अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई किं भवसिद्धिया पुच्छा' अलेश्याः सामान्यतो लेश्यारहिताः खल्ल भदन्त ! जीवाः क्रियावादिनः कि भवति. होते हैं या अभवसिद्धिक होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा! भवसिद्धिथा वि अभवसिद्धिया वि' हे गौतम ! अक्रियावादी सलेश्य जीव भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं। 'एवं अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि' इसी प्रकार से अज्ञानवादी जीव भी और वैनथिकवादी जीव भी भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक दोनों प्रकार के होते हैं । 'एवं जाव सुक्कलेस्ला कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्यावाले क्रियावादी जीव भवसिद्धिक ही होते हैं अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। और कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक के अक्रि. यावादी आदि जीव भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक दोनों प्रकार के 8- 'गोयमा ! भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि' ॐ गौतम ! मठियावाही श्यावाणा व ससिद्धि५५ उय छे भने मससिद्धि य हाय छे. एवं अन्नाणियबाई वि वेणइयवाई वि' मा प्रमाणे श्मशानवाही 04 मन पैन યિકવાદી જીવ પણ ભવસિદ્ધિક અને અભવસિદ્ધિક એમ બન્ને પ્રકારના હોય छ. 'एव जाव सुक्कलेस्सा' वेश्याथी सन शुस वेश्यावाठियावाही જીવ ભવસિદ્ધિક જ હોય છે. અભવસિદ્ધિક હેતા નથી. તથા કૃષ્ણલેશ્યાથી લઈને શુકલ લેડ્યા સુધીના અઢિયાવાદી જીવ ભવસિદ્ધિક અને અભવસિદ્ધિક भन्न १२ डाय छे. 'अलेक्सा भंते | जीवा किरियाबाई कि भवसिद्धिया पुच्छा' 8 सपन लियावाही असे२५ ७वशु स4 डाय छ ? अथवा
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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