SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ भगवतीस्त्र अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनश्च अप्कायिकवनस्पतिकायिका द्विमकारकमेव आयुष्कं वध्नन्तीति भावः । 'तेउकाइया वाउकाइया सयट्ठाणेसु मज्झिमेसु दोमु सरोसरणेसु नो नेरहयाउयं पकरेति' तेजस्कायिका वायुकायिकाथ सर्वस्थानेषु सर्वेष्वेव लेश्यादिद्वारेषु मध्यमयोयो समवसरणयोः अक्रियावाद्यज्ञानिकवादि. रूपयोः नो नारकभवसम्बन्धि आयुष्कं प्रकुर्वन्ति । किन्तु 'तिरिक्खजोणियाउयं परेंति' तिर्यग्योनिकायुष्क प्रकुर्वन्ति, 'णो मणुस्साउयं०' नो मनुष्य सम्बन्धि आयुष्क पकुर्वन्ति 'नो देवाउयं पकरेंति' नो देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति तेजस्कायिक के जैसे देवों की उत्पत्ति हो सकते से अपर्याप्तावस्था में ही तेजो. लेश्या का सद्भाव रहता है। तेजोलेश्या, के सभाव में आयुका बंध नहीं होता है इत्यादि सब कथन पृथिवीकायिक के जैसे पहां समझना चाहिये । अक्रियावादी और अज्ञानिकवादी अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारकी ही आयुका बंध करते हैं यही कहने का तात्पर्य है, 'लेडझाइया वाउकाझ्या सव्वट्ठाणेसु मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसुनो नेरइथाउयं पकरेंति' तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव लेश्यावादिक सर्व स्थानों में अक्रियावादी रूप और अज्ञानिकवादी रूप समवसरणवाले होते हुए नारक भव सम्बन्धि आयु कर्म का बंध नहीं करते हैं किन्तु वे 'तिरिक्खजोणियाउयं पकरेति' तिर्यगायु का ही बंध करते हैं। 'णो मणुस्साउयं नो देवाउयं पकरेंति' मनुष्यायु का बंध नहीं करते हैं और न देवायु का बंध करते हैं। ઉત્પત્તી હોવાથી અપર્યાપ્ત અવસ્થામાં તેલેશ્યાને રાદુર્ભાવ હોય છે. તેજલેશ્યાના સદૂભાવમાં આયુને બંધ રહેતો નથી. વિગેરે તમામ કથન પ્રકાયિકના કથન પ્રમાણે અહિયાં સમજવું અકિયાવાદી અને અજ્ઞાનવાદી અપકાયિક અને વનસ્પતિકાયિક જીવ બે પ્રકારનાં આયુષ્યને જ બધ કરે છે. એજ આ કથનનું તાત્પર્ય કહ્યું છે. - उकाइया वाउकाइया सव्वदाणेसु मज्झमेसु दोसु समोसरणेसु नो मेरइयाउयं पकरेंति' ते४२४ायि: मने वायुय: वश्या विगेरे सा स्थानामा અકિયાવાદીપણા અને અજ્ઞાનવાદીપણાના સમવસરણવાળા થઈને નારક ભવ સંબંધી આયુકર્માને બંધ કરતા નથી. તથા દેવ આયુનો પણ બંધ ४२ता नथी.' ५२'तु 'तिरिक्खजोणियाउय पकरें ति' तिय" मायुनी १ ' 3 छ. 'णो मणुस्साउब नो देवाउयं पकरेंति' मनुष्य न्यायुनी ५ ४२त। નથી. તથા દેવ આયુને પણ બંધ કરતા નથી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે RAR
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy