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________________ भगवती देवाउयं पकरेंति' नो नैव देवसम्बन्धि आयुकवन्ध कुर्वन्तीति । 'नवर सम्मामिच्छत्ते उवरिल्लेहिं दोहि वि समोसरणेहि नवर' सम्यग्मिथ्यात्रिनो मिश्रष्टया उपरितनाभ्याप्रज्ञानिक वैनयिकवादिरूपाभ्यां द्वाभ्यामपि समवसरणाभ्याम् 'न किंचि वि पकरेंति' न किमपि आयुः प्रकुर्वन्ति 'जदेव जीवपए' यथैव जीपदे सम्यग्मिथ्याष्टिनारकाणां द्वे एवान्तिये समवसरणे अज्ञानिकवादिनश्च वैनयिक वादिनश्चत्याकार के भवतः तेषां चायुर्वन्धो न भवत्येव गुणरथानकस्वभावादत स्ते न किमपि आयुः प्रकुर्वन्तीति भावः मिश्रदृष्टः क्रियावादाक्रियावादयोरभावात् । ‘एवं जाव थणियकुमारा जहा नेरइया' एवं यारस्तनितकुमाग यथा नैरयिकाः नैरयिकत्रदेव असुरकुमारादारभ्य स्तनितकुमारपर्यन्ता जीवा नारकवदेव समवसरणविषये ज्ञातव्या इति । 'अकिरियावाई ण मंते ! पुढवीकाइया पुच्छा' नहीं करते हैं किन्तु तिर्यगायु क्षा एवं मनुष्यायु का ही बन्ध करते हैं, देवायु का भी पन्ध नहीं करते हैं । 'नघर सम्मामिच्छत्ते उवरिल्ले दोहि वि समोलरणेहिं' परन्तु जो सम्परिमथ्यात्वी नारक हैं और जो अज्ञानिकवादी एवं चैनधिकवादी हैं ये किसी भी आयुका बन्ध नहीं करते हैं । 'जहेच जीव पर' जैसा कि जीय पद में सम्यग्मिथ्याके दो ही अन्तिम समवसरण अज्ञानवादी और वैनयिकवादी ये दो समवसरण होते हैं और उनमें आयुशन्ध नहीं होता है। क्यो की इस गुणस्थान फा-तृतीय गुणस्थान फा-ऐलाही स्वभाव होता है- इस लिये किसी भी आयुका बन्ध नहीं करते हैं। मिश्रप्टिमें न क्रिया वादिता होती है और न अक्रियावादिता होती है। 'एवं जाव धाणिय. कुमारा जहेव नेरड्या' असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के जीव नैरथिकों के जैसे ही समवसरण के विषय में ज्ञातव्य है। ४२ता नथी. 'नवर सम्मामिच्छत्ते उवरिल्ले दोहि वि समोसरणेहि' पतु मा સમ્યગુમિથ્યાવાળા નારકે છે, તેઓ તથા અજ્ઞાનવાદી અને નાયિકવાદી છે तमा ५] मायुने। मध ४२ता नथी 'जहेव जीवपए' रे प्रभाये ७१ પદમાં સમ્યગૃમિથ્યાદષ્ટિવાળા નારકેને છેલ્લા બેજ સમવસરણ એટલે કે અજ્ઞાનવાદી અને વૈનાયિકવાદી આ બેજ સમવસરણ હોય છે. તેઓને આયુ બંધ રહેતો નથી. એ જ તેમનો સ્વભાવ હોય છે, તેથી કોઈ પણ આયુનો તેઓ બંધ કરતા નથી. કેમ કે-આ ત્રીજા ગુણ સ્થાનને એ જ રવભાવ હોય છે. તેથી તેઓ કેઈપણ આયુને બંધ કરતા નથી.મિશ્રદષ્ટિવાળાઓમાં ठियावाहीपा ५ तु नथी. तथा मठियावहिपापडातु नथी. 'एवं जाव थणियकुमारा जहा नेरइया' मेन्द्रियाणाथी सनस्तनितभार सुधान। જ સંબંધી બૈરયિકના કથન પ્રમાણે જ તેઓનું સમવસરણ કહેલ છે.
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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