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________________ प्रमेयंचन्द्रिका टीका श०२५ उ.४ सू०१३ सैजनिरेजपुद्गलानामल्पयहुत्वम् ११३ माणुपुद्गला निरेजाः स्कन्धा द्रव्यार्थतया सैजा संख्यातमदेशिकस्कन्धापेक्षया असंख्यातगुणा अधिका भवन्तीति६ । 'संखेज्जपएसिया खंधा निरेया दवट्ठयाए संखेज्जगुणा७' संख्यातमदेशिकाः स्कन्धा निरेजा द्रव्यार्थतया निरेजपरमाणु पुद्गलापेक्षया संख्यातगुणा अधिका भवन्ति द्रव्यातयेति७) 'असंखेज्जपएसिया खंधा निरेया दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा८' असंख्यातमदेशिकाः स्कन्धा निरेजा द्रव्यार्थतया निरेजसंख्यातमदेशिकस्कन्धापेक्षया असंख्यातगुणा अधिका भव. न्तीति । तदेवं द्रव्यार्थता पक्षेऽल्पवहुत्वं भवतीति८ । 'पएसद्वयाए एवं चेव' पदेशार्यतायाम् एवमेव यथैव द्रव्यार्थतापक्षे परमाणुपुद्गलसंख्यातमदेशिका संख्यात. प्रदेशिकानन्तमदेशिकस्कन्धानामल्पबहुत्वं प्रतिपादितं तथैव प्रदेशार्थतापक्षेऽपि 'पते पामल्पवहुत्वमवगन्तव्यमिति । अथ 'पएसट्टयाए एवं चेव' इत्यत्रातिदेशे यो विशेषः स कथ्यते-'णवरं' इत्यादि । परमाणुपदेशार्थतायाः स्थानेऽप्रदेशार्थत्या गुणे द्रव्यरूप से वे परमाणु पुद्गल हैं जो निष्कम्प हैं ६। 'संखेज्जपयेलिया 'खंधा निरेया दव्धट्टयाए संखेज्जगुणा' ७ इनकी अपेक्षा संख्यातप्रदेशों वाले निष्कम्प स्कन्ध द्रव्यरूप से संख्यातगुणें हैं ७। 'असंखेज्जपएसिया खंधा नि रेया दवट्टयाए असंखेज्जगुणा' ८ इनकी अपेक्षा असंख्यातप्रदेशों वाले निष्कम्प स्कन्ध द्रव्यार्थरूप से असंख्यातगुण हैं | "पएसट्टयाए एवं चेव' प्रदेशरूप से भी ये ही आठ विकल्प यहां संकम्प अकम्प परमाणु पुगलों में एवं संख्यात प्रदेशिक असंख्यात प्रदेशिक और अनन्तप्रदेशिक स्कन्धों के बीच में अल्प बहत्व के सम्बन्ध में समझना चाहिए । “नवरं परमाणुपोग्गला अपएसट्टयाए भाणियन्धा" परन्तु परमाणु पुद्गलों के सम्बन्ध में प्रदेशरूप से विचार नहीं करना चाहिये। किन्तु वहां उसके बदले अप्रदेशरूप से उनका पधारे ५२मा पुरती , है २ नि०४५ छ, ६ 'संखेज्जपएसिया खंधा. निरेया दबट्टयाए, संखेज्जगुणा' तेना ४२ता सभ्यात प्रदेशात निय २४. द्रव्यमाथी सभ्यातमा छ ७ 'असंखेज्जपएसिया खंधा निरेया दवट्याए असंखेज्जगुणा' तना ४२i असतशा नि०५४ द्रव्या पायाथी असभ्यात थायरे "पएसद्वयाए एवं चेव" प्रदेशपाथी ५ मा मा વિક અહિયાં સકંપ-અપ પરમાણુ યુદ્ધમાં તથા સંખ્યાત પ્રદેશવાળા અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા અને અનંત પ્રદેશવાળા સ્ક ધેમાં અલપ-બહુપણાના समयमा समस्या. 'नवरं परमाणुपोग्गला अपएसट्टयाए भाणियव्वा' यरंतु परमार પુદ્ગલેના સંબંધમાં પ્રદેશપણુથી વિચાર કરવો ન જોઈએ. પરંતુ તેને બદલે स० ११५
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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