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________________ ७१ प्रमेयमन्द्रिका टीका श०२५ उ.४ २०१ परिमाणभेदनिरूपणम् कलिओगा' स्यात्-कल्योजाः। 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ वणस्सइकाइया जाव कलिभोगा' तत्केलार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-वनस्पतिकायिकाः यावत् कल्योजा इति । भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'उववायंपडुन-से तेणढे णं तं चेत्र' उपपातं प्रतीत्य-तत्तेनार्थेन तदेव । यद्यपि वनस्पतिकायिकानामनन्तस्वेन स्वभावादेव ते कृतयुग्मादिरूपाः संभवन्ति तथापि-गत्य. न्तरेभ्य आगत्य एस-द्वि-ज्यादीनामुपपात संभवेन ते जीवाश्चतूराशिरूपा भवन्ति । यया-उपपात प्रतीत्य चतूरूपत्वं कथितम् तथा-उद्वर्तनामप्याश्रित्य वनस्पति जीवा चतुरूपाः सं मवेयुः परन्त्वत्र-उद्वर्चनाया विवक्षा न कृता-इति । 'वैदियाणं जहा नेरइयाणं' द्वीन्द्रियाणां यथा-नैरयिकाणाम्-यथा-नारकाणां कृतयुग्मादिरूपत्वं ____ 'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चा वणस्सहकाइया जाव कलिओगा' हे भदन्त । ऐसा आप किस कारण से कहते कि वनस्पतिकायिक जीव यावत् कल्योजरूप होते हैं ? इस गौतमस्वामी के प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं-'गोयमा!' हे गौतम! 'उववायं पडुच्च से तेणहेणं तं चेव' इस प्रकार के कथन का कारण उपपात है । यद्यपि वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं अतः स्वभावतः वे कृतयुग्मरूप ही होते हैं परन्तु फिर भी उनमें गत्यन्तर से आकरके एक दो तीन आदि जीव उत्पन्न हो सकते हैं अतः इन्हें चार राशि रूप कहा गया है। जिस प्रकार इनमें उपपात को लेकर चतूरूपता कही गई है । उसी प्रकार इनमें मरण को लेकर चतरूपता संभवित होती है । परन्तु यहां उद्य. र्तना-पाहरनिकालना, कि विवक्षा नहीं की गई है । 'वेइंदियाणं जहायुम्भ पर डाय छ 'सिय कलिओगा' भने वा तात्यो। ३५ पक्ष डाय छे. 'सेकेणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ वणस्सइकाइया जाव कलिओगा' 3 ભગવદ્ આપ એવું શા કારણથી કહે છે ? કે વનસ્પતિકાયિક જી યાવત કજ રૂપ હોય છે? ગૌતમસ્વામીના આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી તેમને કહે छ 8-'गोयमा ! 3 गीतम! 'उववायं पडुच्च से तेणटेणं तचेव' मा प्रभारी કહેવાનું કારણ ઉપપાત છે, જેથી સ્વભાવતઃ તેઓ કૃતયુગ્મ રૂપ જ હોય છે. પરંતુ તેમાં ગત્યન્તરથી આવીને એક, બે ત્રણ વિગેરે જીવ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. તેથી તેઓને ચારે રાશિ રૂપ કહેલ છે જે રીતે તેઓમાં ઉપપાતને લઈને ચાર રૂપ પશું કહ્યું છે, એજ પ્રમાણે તેમાં મરણને લઈને પણ ચાર પ્રકારપણું સંભવે છે. પરંતુ અહીંયાં ઉદ્ધના (નરકથી બહાર નીકળવું मी विपक्षा ४२स नथी, 'वेइंदियाणं जहा नेरझ्याणं' 2 प्रभारी ना२७
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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