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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ,३ सू०४ द्रव्यार्थत्वेन प्रदेशनिरूपणम् ६५५ 'सिय दावरजुम्में' स्याद् द्वापरयुग्मम् । 'सिय कलिओगे' स्यात्-कल्योजम् ‘एवं जाव आयए' एवं यावदायतम्-अत्र-यावत्पदेन वृत्तव्यस्रवतुरस्त्र संस्थानानां ग्रहणं भवति । तथा-च वृत्तादारभ्य आयतान्तसंस्थानानि प्रदेशार्थतया स्यात्कृत. युग्मादिरूपाणीत्यर्थः । 'परिमंडला णं भने । संठाणा परसट्टयाए कि क़डजुम्मा पुच्छा' परिमण्डलानि खलु भदन्त ! संस्थानानि कि प्रदेशार्थतया ' कृतयुग्मानि पृच्छा ? योजानि द्वापरयुग्मानि कल्योजानि वा-इति पृच्छा! भगवानाह-- गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'ओघादेसेणं' ओघादेशेन-सामान्यता, इत्यर्थः, 'सिय कडजुम्मा जाय सिय कलिओगा' स्यात्-कृतयुग्मानि यावत् स्याद फल्योजानि, अत्र यावत्पदेन स्यात्-व्योजानि स्याद् द्वापरयुग्मानि इत्यनयोः संग्रहः । तत् प्रदेशानां चतुष्काऽपहारेण अपहियमाणानां चतुः पर्यवसितत्वे कृतसंस्थान के विषय में भी कथन जानना चाहिये। यहां यावत्पद से वृत्त, 'ज्यस्त्र, चतुरस्र इन संस्थानों का ग्रहण हुआ है । तथा च-वृत्तसंस्थान से लेकर आयतसंस्थान तक के समस्त संस्थान प्रदेशों की अपेक्षा से कृत. यग्मादिरूप हैं। 'परिमंडलाणं भंते ! संठाणा पएसट्टयाए कि कडजम्मा पुच्छा' अय गौतम स्वामी ने प्रभु से यहां अनेक परिमंडल संस्थानों के 'विषय में प्रदेशों की अपेक्षा लेकर ऐसा प्रश्न किया है कि हे भदन्त ! अनेक परिमंडलसंस्थान प्रदेशोंकी अपेक्षा से क्या कृतयुग्म रूप है? अधवा योजरूप है ? अथवा द्वापरयुग्मरूप है ? अथवा कल्पोजरूप है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव सिय कलिओगा' हे गौतम! जय प्रदेशों की अपेक्षा लेकर सामान्यरूप से परिमंडलों का विचार किया जाता है तब चार के अपहार से अपहृतदए રૂપ હોય છે, અને કઈ વાર કલ્યાજ રૂપ હોય છે. આજ રીતે યાવત્ વૃત્ત સંસ્થાન વ્યસ્ત્ર સંસ્થાન, રાતુરન્સ સ સ્થાન અને આયત સ સ્થાનના સ બં ધમાં પણ સઘળું કથન સમજી લેવુ તથા વૃત્ત સંસ્થાનથી લઈને આયત સંસ્થાન સુધીના સઘળા સંસ્થાનો પ્રદેશની અપેક્ષાથી કૃતમાદિ રૂપ छ 'परिम डला णं भ ते ! संठाणा पएसट्टयाए किं कडजुम्मा पुच्छा' 6 गौतम સ્વામી પ્રભુને અનેક સંસ્થાના વિષયમાં પ્રદેશની અપેક્ષાથી એવું પૂછે છે કે હે ભગવન અનેક પરિમ ડલ સ સ્થને પ્રદેશની અપેક્ષાથી શ કતયન્મ ૩૫ છે ? અથવા જરૂપ છે? અથવા દ્વાપર યુગ્મ રૂપ છે ? અથવા यो३५ छे । म प्रशना उत्तरमा प्रभु श्री ४ छ -'ओघादेसेण सिय । काजम्मा जाव सिय कलिओगा' ७ गोतम ! प्रशानी अपेक्षा सामान्य पगाथा परिभान :विया२ ४२वामा साव छ, त्य'रे यारन। मपसारथी
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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