SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 651
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ० ० ० * प्रमेन्द्रका टीका श०२५ उ. ३ ०३ प्रदेशतोऽवगादतश्व संस्थाननि० ६३३ एवमिदं घनवृत्तं जघन्यतः सप्तपदेशिकं भवतीति । 'तस्थ णं जे से जुम्मपएसिए रात्र खलु यत् तत् युग्ममदेशिकम् ' से जहन्नेर्ण बत्तीसपए सिए बत्तीसपरसोगादे पम्नत्ते' तत् युग्ममदेशिकं जघन्येन द्वात्रिंशत्मदेशिकं तथा द्वात्रिंशत्मदेशावगाद द्वात्रिशदाकाशप्रदेशावगाढम् एतस्यैवं स्थापना - आ. नं. ६ अस्य चोपरि ईदृश एव पतरः स्थाप्यः, ततः सर्वे चतुर्विंशतिस्ततः प्रतरद्वयस्य मध्ये परमाणूनां चतुर्णामुपरि अन्ये चत्वारोऽध वेत्येवं द्वात्रिंशदिति, 'उको सेणं अतरसिए असं खेज्न एसो गाढ" उत्कृष्टतोऽनन्तप्रदेशिकं तथा आ. नं. ६ असंख्येयमदेशावगाढम् | वृत्तसंस्थानं पद यस संस्थानं प्रदर्शयितुमुपक्रमते चार परमाणु स्थापित करना चाहिये। इस प्रकार यह जघन्यवृत्त सात प्रदेशों वाला होता है । 'तत्थ णं' जे से जुम्मपएसिए' तथा जो युग्म प्रदेशिक घनवृत्त होता है वह 'जहन्नेण' बत्तीसपएसिए बत्तीसपएसोगाढ़े पन्नत्ते' जघन्य से बत्तीस ३२ प्रदेशों वाला होता है और बत्तीस प्रदेशो में ही उसकी अवगाहना होती है । इसका आकार आ० ६ में दिया है। इसके ऊपर इसी प्रकार का दूसरा और बारह प्रदेशों का प्रतर स्थापित करना चाहिये । इस तरह से यह २४ प्रदेश हो जाते हैं । इन दोनों प्रतरों के मध्य भाग के चार अणुओं के ऊपर नीचे दूसरे और चार २ परमाणुओं की स्थापना करना । इस प्रकार से बत्तीस प्रदेशों का युग्मप्रदेशिक घनवृत्त होता है । 'उक्कोसेणं अनंत एसिए असंखेज्ज एसो गाढे' एवं यह युग्मप्रदेशिक घनवृत्त उत्कृष्ट से अनंत प्रदेशों वाला होता है और असंख्यात आकाश प्रदेशों में यह अवगाढ, ચાર પરમાણુઓ સ્થાપવા જોઈએ. આ રીતે આ જઘન્યવૃત્ત સ્થાન સાત अद्वेशीवाणु होय छे. 'तत्थ ण जे से जुम्मनएसिए' तथा तेमां ने युग्भ प्रदेश वाणु धनवृत्त संस्थान होय छे, ते 'जहम्नेण बत्तीसपएसिए बत्तीसपएसोगाढे पन्नत्ते' ४धन्यथी 3२ मत्रीस प्रदेशोवाणु होय छे भने मत्रीस प्रदेशमां આ ન. ૬ માં બતાવેલ તેની અવગાહના થાય છે. તેના આકાર પ્રદેશે ના પ્રતર સ્થાપવા જોઈએ. ઉપર આજ રીતના બીજા ૧૨ આ રીતે આ ચાવીય પ્રદેશેા થઈ જાય છે. આ મન્ને પ્રકારના પ્રતરાના વચલા ભાગના ચાર અણુએની ઉપર નીચે ખીજા ચાર પરમાણુએની સ્થાપના કરવી આ પ્રમાણે ૩૨ બત્રીસ પ્રદેશનું યુગ્મ પ્રદેશવાળું ઘનવૃત્ત થાય છે. 'कोसेणं अनंत पए सिए अस खेजपएसो गाढे' આ યુગ્મ પ્રદેશવાળુ વ્રુત્ત ઉત્કૃષ્ટથી અન ત પ્રદેશેાવાળુ હાય છે, અને અસ ખ્યાત આકાશ પ્રદે. શોમાં અવગાઢ થાય છે, આ રીતે વૃત્ત સંસ્થાનનું કથન કરીને હવે માર ધૃત भ० ८० ०
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy