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________________ प्रमेय चन्द्रिका टीका श०२५ उ.३ स०३ प्रदेशतोऽवगाहतश्च संस्थाननि० ६३१ प्रतरवृत्तं जघन्येन पञ्चपदेशिकं' पश्चप्रदेशावगाढम् आ. न.३ 'उक्क सेणं । अणंतपएसिए असंखेजपएसोगादे' तत् प्रतरवृत्तमुत्कर्षेणाऽनन्तप्रदे- ' शिकम्, तथा असंख्यातमदेशावगाढम् असंख्याते आकाशपदेशे तस्या-० ० वगाहना भवतीत्यर्थः । 'तत्य णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेण बारस. आ.नं. ३ पएसिए' तत्र खलु यत् तत् युग्मपदेशिक प्रतरवृत्तं तत् द्वादशपदेशिकम् . .' ' 'बारसपएसोगाढे द्वादशमदेशावगाढम् एतस्य स्थापना चेस्थम् आ.नं.४०००१ 'उक्कोसेणं अतपएसिए असंखेजपएसोगादे' उत्कर्षेणाऽनन्तमदेशिकम् : असंख्येयपदेशावगाढम् । 'तत्थ ण जे से घणवट्टे से दुविहे पन्नत्ते' तत्र आ.नं. ४ संस्थान है। 'तत्थ ण जे से आयपएसिए से जहन्नेण पंच पएसिए पंच पएसोगाढे' 'ओजप्रदेशिक वृत्तसस्थान जघन्य से पांच प्रदेशों वाला होता है और उनमें जो पांच प्रदेशों में उसका अवगाह होता है इसका आकार सं. टीकामें आ० ३ में देख लेवे 'उक्कोसेण अणत पएसिए असंखेज्जपएसोगाढे' तथा उत्कृष्ट से ओजनदेशिकवृत्त संस्थान अनन्त प्रदेशों वाला होता है और असंख्यात प्रदेशों में इसकी अवगाहना होती है। अर्थात् असंख्योत आकाश प्रदेश में इसकी अवगाहना होती है। 'तत्थण जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेण बारसपएसिए' तथा जो युग्मप्रदेशिक प्रतरवृत्त है वह जघन्य से बारह १२ प्रदेशो वाला होता है और बारह १२ प्रदेशों में उसकी अवगाहना होती है। इसका आकार सं. टीका आ०४ चार से दिया है। 'उक्कोसेण अणतपमसिए असंखेजपए लोगाढे' तथा युग्मप्रदेशिक जो प्रतरवृत्त है वह उत्कृष्ट से अनंत प्रदेशों वाला होता है और ओयपएसिए से जहन्नेण पंचपएसिए पंचपएसोगाढे' मा यो प्रदेशात સંસ્થાન જઘન્યથી પાંચ પ્રદેશવાળું હેય છે અને પંચ પ્રદેશમાં તેને અવगाई थाय छे. तन मा२ स. टीममा० - 3थी मताव छ 'उक्कोसेणं अयंत पएसिए असखेज्ज पएसोगाढे' तथा अष्टथा साशवाणु वृत्तस स्थान અનંત પ્રદેશો વાળ હેય છે અને અસંખ્યાત પ્રદેશોમાં તેની અવગાહના, થાય છે. અર્થાત્ અસંખ્યાત આકાશ પ્રદેશોમાં તેની અવગણના થાય છે. 'तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं बारसपएसिए' तथा तमा २ युभप्रदेश વાળું પ્રતરવૃત્તસ સ્થાન છે, તે જઘન્યથી બાર પ્રદેશોવાળું હોય છે અને બાર પ્રદેશોમાં તેઓની અવગાહના થાય છે તેને આકાર સં. ટીકામાં આ૦ ન. ४ मा मतावत छ. 'उक्कोसेणं अणतपएसिए असखेज्जपएसोगाढे तथा रे યુગ્મ પ્રદેશ વાળું પ્રતર વૃત્ત સંસ્થાનું છે તે ઉત્કૃષ્ટથી અને તે પ્રદેશોવાળું
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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