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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.२ सू०३ असंख्येये लोके अनन्त द्रव्यसमा.नि०५७५' चिजति' कतिदिश आश्रित्य पुद्गलाश्चियन्ते कतिषु दिक्षु, व्यतिरिक्ता भवन्ती--, त्यर्थः, इति प्रश्नः । उत्तरमाह-एवं चेव' इत्यादि, 'एवं चेव' एवमेव चयने यथा पतिपादितं तथैव अत्रापि सर्व बोद्धव्यम् प्रतिनियतदेशत्वात् निव्याघातेन षट्स दिक्षु, व्याघातमाश्रित्य त्रिचतुःपञ्चदिक्षु विकीर्णा भवन्तीत्यर्थः ‘एव उवचिज्जति' एवं चपनवदेव उपचीयन्ते स्कन्धस्वरूपाः पुङ्गलाः पुगलान्तरसम्बन्धादुपचिता भवन्तीति एवं अवचिज्जति' एवम्-चयनवदेव अपचीयन्ते स्कन्धरूपास्तएव पुद्गलाः प्रदेशविघटनेनापचीयन्ते इति ॥सू०३।। द्रव्याधिकारादेच दमप्याह-'जीचे णं भंते ! जाई दबाई' इत्यादि । मूलम्-जीवेणंभंते ! जाइं व्वाइं ओरालियसरीरत्ताए गेण्हइ ताइं किं ठियाइं गेण्हइ अठियाइं गेण्हइ ? गोयमा! ठियाइं पि को आश्रित करके पुगल छूटे हो जाते हैं अर्थात् लोक के एक आकाश प्रदेश से जो पुद्गल वियुक्त होते हैं वे कितनी दिशाओं में जाते हैं ? उत्तर एवं चेव' हे गौतम | इस सम्बन्ध में कथन जैसा एकत्रित होने में किया गया है वैसा ही जानना चाहिये। अर्थात् यदि प्रतिबन्ध का कारण नहीं है तो वे वहां से छहों दिशाओं में विकीर्ण हो सकते हैं और यदि प्रतिबन्ध है तो वे तीनदिशाओं में भी चार दिशाओं में भी और पांच दिशाओं में भी विकीर्ण हो सकते हैं । 'एवं उचिज्जति चयन के जैसे ही स्कन्ध स्वरूप पुद्गल पुद्गलान्तर के सम्बन्ध से उपचित होते हैं और इसी प्रकार से वे 'अवचिज्जति' स्कन्ध रूप पुद्गल प्रदेशों के विघटन होने से अपचित होते हैं ।सू०३॥ પદ્રલો છૂટા થઈ જાય છે? અર્થાત્ લેકના એક આકાશ પ્રદેશથી જે મુદ્દલ જુદા થઈ જાય છે. તેઓ કેટલી દિશાઓમાં જાય છે? 6त्तर-'एवं चेव' 3 गीतम! म सधमा । थवानी ममता જે પ્રમાણેનું કથન કર્યું છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન આ પલેના છૂટા થવાના . સંબધમાં પણ સમજી લેવું. અર્થાત્ જે પ્રતિબંધનું કારણ ન હોય તે તેઓ ત્યાંથી છએ દિશાઓમાં વિકીર્ણ (વેરાઈ જાય છે) થઈ જાય છે. અને જે પ્રતિબંધ હોય તો તેઓ ત્રણે દિશાઓમાં પણું ચારે દિશાઓમાં પણ भने पाय हशाममा ५ वी 25 श छे. 'एव उवचिज ति' ययनना પ્રમાણે સ્કન્ય સ્વરૂપ પુલ બીજા પુલના સંબંધથી ઉપસ્થિત થઈ જાય છે. - भने मेरी शत तमो अवचिज्जति' २४५३५ पुन प्रदेश विघटन-ट। હોવાથી અપચિત થાય છે. સૂ૦ ૩
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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