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________________ भगवतीय ५७० 'घेउवियतेयगकम्मर्ग' चैक्रियतेज पकाठणं शरीरम् 'सोईदियं जाब फासिदियं आणापाणुत्तं च जाव निवनयंति' श्रोत्रेन्द्रियं यावत् स्पर्शनेन्द्रियमानमाणं च यावत् मनोयोगादियोगत्रिकं वासोच्छ्वासं च निर्वतयन्ति आहृतान् अनीवपदार्यान् क्रियादिशरीररूपेणेन्द्रिय रूपेण योगरूपेण शासोच्छ्वासादिरूपेण च संपादयन्ती. स्यर्थः ‘से तेणद्वेणं गोयमा एवं बुच्चई तत्तेनार्थेन हे गौतम । एवमुच्यते यत् नैरयिका अजीवद्रव्याणि परिभोगाय गृहन्ति न तु अजीवद्रव्याणि नैरयिकान् परिभोगाय गृह्णन्ति, 'एवं जाव वेमाणिया' एवम्-नरयिकवदेव यावद्वैमानिकाः नैरयिकवदेव अवनपतित आरभ्य वैमानिकान्तदण्ड केष्वपि इयमेव व्यवस्था ज्ञातव्ये. त्यर्थः 'नवरं सरीरइंदियजोगा भाणियव्या जस्त जे अस्थि' नवरं शरीरेन्द्रिययोगा परियाहत्ता' अजीव द्रव्यों को ग्रहण करके 'वेब्धियतेयगकम्मगं' उन्हें वैक्रिय शरीर रूप से, तैजस शरीर रूप से, कार्मण शरीर रूप से 'सोइंदियं जाव फासिदिय आणापाणुत्तं च जाव निव्वत्तयति' श्रोत्रे न्द्रिय रूप से यावत् स्पर्शनेन्द्रिय रूप से और श्वासोच्छ्वास आदि रूप से परिणमाते हैं । 'आहृन (आहार रूप में ग्रहण किये हुवे) अजीव पदाथों को वे वैक्रियादि शरीर रूप से, इन्द्रिय रूप से और श्वासोच्छ्वासादिरूप से संपादित करते है-'ले तेणट्टेणं गोयमा! एवं वुच्चई' इस कारण हे गौतम | मैंने ऐसा कहा है कि नैयिक अजीव द्रव्यों को परिभोग के लिये ग्रहण करते हैं अजीव द्रव्य नैरथिकों को परिभोग के लिये ग्रहण नहीं करते हैं। 'एवं जाव वेमाणिया' इसी प्रकार का कथन यावत् भवनपति से लेकर वैमानिक तक के दण्डकों में भी जानना चाहिये । 'नवरं सरीरइंदियजोगा भाणियच्या जस्स जे अस्थि' परन्तु डाय ४शन 'वेवियतेयगकम्मग' तक वैठिय पाथी, तैस शरी२ ३५या भी शरीर ३५थी 'सोइ दियं जाव निव्वत्तय ति' श्रोत्रद्रिय पाथी यावत् સ્પર્શનેન્દ્રિય પણાથી અને શ્વાસોચ્છવાસ વિગેરે રૂપથી પરિણમાવે છે. આહુત આહાર પણાથી ગ્રહણ કરેલા અજીવ પદાર્થોને તેઓ વૈક્રિય વિગેરે શરીર પણાથી, ઈન્દ્રિય પણાથી, યોગ રૂપથી, અને શ્વાસે છૂવાસાદિ રૂપથી–પરિણ भाव छे. सपान ४२ छे. 'से तेणट्रेणं गोयमा ! एवं वुच्चई' ते ४.२९या હે ગૌતમ ! મેં એવું કહ્યું છે કે-નારકીય અછવદ્રવ્યોને ઉપગ માટે अडाय ४२ छे. मद्रव्य नरथिहोने भाट हय ४२di नयी. 'एवं जाव वेमाणिया' मा प्रभानु थन यावत् सवनपतिथी सन वैमानि सुधीनामा ५९ ४३ २. 'नवर सरीरइदियजोगा भाणियचा
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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