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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२४ सू०२ सनत्कुमारदेवोत्पत्तिनिरूपणम् ५१७ शतानि, 'उक्को मेण वि पचधणुसयाई' उत्कर्षेणापि पञ्चधनुःशतानि जघन्यो. स्कृष्टाभ्यां पञ्चधनु: शतप्रमाणा शरीरावगाहना भवतीत्यर्थः। 'ठिई जहन्नेणं पुनकोडी' स्थितिर्जघन्येन पूर्व कोटी 'उकोसेण वि पुचकोडी' उत्कर्पणापि पूर्वकोटिः, जघन्योत्कृष्टायां पूर्वकोटिप्रमाणा स्थित भवतीत्यर्थः। 'सेसे तहेव" जाव भवादेसोति' शेषम्-स्थित्यवगाहनातिरिक्त सर्वमपि तथैव-विजयादिपक'' रणवदेव यावत् भवादेश इति भवादेशपर्यन्तं पूर्वप्रकरणवदेव इति भावः।' 'कालादेसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोबमाई दोहि पुत्रकोडीहि अमहियाई' काला । देशेन जघन्येन त्रयस्त्रिंगत्सागरोपमाणि द्वाभ्यां पूर्वकोटोभ्यामधिकाति । 'उको सेण वि तेत्तोस, सागरोवमाइ दोहि वि पुनकोडीहि अन्भहियाई'.उत्कर्षे णाऽपि प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि द्वाभामपि पूर्व कोटीभ्यानभ्यधिकानि, 'एवइयं कलं से वेज्जा' एतावन्तं कालं मनुष्य सर्वार्थसिद्धगतिं च सेवेन 'एवईय' कालं कि यहां पर शरीरावगाहना जघन्य से पांचसौ धनुष की है और 'उत्कृष्ट से भी वही पांचसौ धनुष की है। 'ठिई जहन्नेणं पुधकोडी' स्थिति जघन्य से एक पूर्व कोटि की है और 'उक्कोसेण वि पुन्धकोडी' उत्कृष्ट से भी वह एक पूर्वकोटि की है 'सेसं तहेव जावं भावादेवोत्ति' इस प्रकार -स्थिति और अवगाहना से अतिरिक्त ओर सब कथन विजयादि प्रकरण के जैसा ही भवादेश पर्यन्त का यहां जानना चाहिये। 'कालादेसेणं जहन्नेणं तेत्तीस सागरोयमाई दोहि पुषकोडीहिं - अभहियाई काल की अपेक्षा कायसंवेध जघन्य से दो पूर्वकोट - अधिक ३३ तेतीस मागरोपम का है और 'उक्कोसेणं वि तेत्तीसं - • सागरोमाई दोहि पुषकोडीहिं अमहियाइ' उत्कृष्ट से भी दो पूर्व.. कोटि अधिक ३३ तेतीस सागरोपम का है । 'एवयं काल सेवेज्जा, અવગાહના જઘન્યથી પાંચસો ધનુષની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ તે પાચસો ધનपनी छे. 'ठिई जहन्नेणं पुव्वकोडी स्थिति थी ये पूटिनी छ. मन 'उकोसेण वि पुब्धकोडी' थी ५ ४ पूटिनी छे. 'सेसं तहेव जाव भवादेसोति' मा शत स्थिति मन माडना शिष यनुमान બીજ તમામ કથન વિજય વિગેરેના પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે જ ભવાદેશ सुधीन ४थन महीयां सम से 'कालादेसेण जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई दोहि पुत्वकोहीहि अमहियाई'. जनी अपेक्षा यस वेष न्यथा ने ५ मिथि: 3 तीस सागरोपभना-छे भने ' 'उक्कोसेण वि तेचीस', सांगरोषमाई दोहि: पुवकोडीहिं अन्भहियाई" थी पY Yue अधि33 त्रीस सापभने। छ, 'एवइयं वालं सेवेज्जा' ते ते
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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