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________________ भगवतीसूत्रे ૮ arन्तकादिदेवानां जघन्यकालस्थितिकस्य तिर्यग्योनिक्स्प 'तिसु वि गमएस छप्पि लेस्साओ काय बाओ' त्रिष्वपि गमकेषु पडपि ले ल्याः कारयितव्या। जघन्य कालस्थितिकतिर्यग्योनिकस्य लान्तकदेवादी समुत्पित्सोः जघन्यस्थिति सामर्थ्यात् कृष्णादीनां पश्ञ्चलेश्यानामन्यतरस्यां स जीवः परिणतो भूला शुक्ललेश्यामासाद्य म्रियते ततः तत्रोत्पद्यते यतोऽग्रेतनभवलेश्वपरिणामे सति जीवः परभवं गच्छतीत्यागमत्वादस्य पडपिलेश्या भवन्तीति । 'सघयणाई बंगलोगलंत एसु पंच आदिल्गाणि संहननानि ब्रह्मलोकलान्वकयो. पञ्च आद्यानि, कीलिकापर्यन्वानि संहननानि भवन्ति, अनयोः आद्यपञ्चसंहननवन्तो हि जीवाः समुत्पद्यन्ते देवलोकों में उत्पन्न होने वाले तिर्यग्योनिक जीव के जो कि जघन्यकाल की स्थितिवाले हैं 'तिसु वि गमएस छप्पि लेस्साओ कायव्वाओ' तीनों गमों में ६ छह लेश्याएं कहनी चाहिये। अर्थात् लान्तकदेव आदि में उत्पन्न होने के योग्य हुए जघन्य काल की स्थिति वाले तिर्यग्योनिक जीव का, जघन्यस्थिति के सामर्थ्य से कृष्णादि पांच लेश्याओं में से किसी एक लेइया में परिणत होकर मरण समय में शुक्ल लेइया को प्राप्त करके मरण होता है । इसलिये वह वहीं उत्पन्न होता है क्योंकि अगले भव की लेइया के परिणाम होने पर ही जीव परभव को जाता है। ऐसा आगम का कथन है । इसी कारण यहां ६ छहों लेश्याएं होती हैं ऐसा कहा गया है । 'संघयणाई' बंभलोगलंनए पंच आदिल्ल गाणि ' ब्रह्मलोक और one में आदि के कीलिका तक के पांच संहनन वाले जीव ही उत्पन्न होते हैं। क्योंकि इन दोनों देवलोकों में आदि के पांच संहनन वाले जीव ही उत्पन्न होते हैं । छट्ठा जो सेवासिंहनन है तिर्यथयेोनिवाजा लवाने मे भेगा धन्य अजनी स्थितिवाजा छे, 'तिसु वि गमपसु छप्पि लेखाओ कायव्वाओ' तेना त्रये भोभां छोश्या કહેવી જોઈએ, અર્થાત્ લાન્તક દેવ વિગેરેમાં ઉત્પન્ન થવાને ચાગ્ય થયેલા જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળા તિય થયેાનિક જીવની જઘન્ય સ્થિતિના સામ અ'થી કૃષ્ણ વિગેરે પાંચ લૈશ્યાએમાંથી કોઈ એક લેસ્યામાં પરિણત થઈને મરણ સમયમાં તેજલેશ્યાને પ્રાપ્ત કરીને મરણ થાય છે. તેથી તે ત્યાંજ ઉત્પન્ન થાય છે. કેમકે-આગલા ભવની વૈશ્યાનું પરિણામ થાય ત્યારે જીવ परभवभां भयं छे. मे प्रभा भागभनु स्थन छे. 'स'घयणाई' बंगलोगलंत पसु पंच आदिल्गाणि ब्रह्मा भने सान्तभां पडेला डीसि सुधीना पांथ સહનન હોય છે, કેમકે આ બેઉ દૈવલેટામાં આદિના પાંચ સહનન કાય છે, કેમકે આ એક દેવલે કામાં આદિના પાંચ સહનનવાળા જીવા જ ઉત્પન્ન થાય છે,
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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