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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ. २४ सू०१ सौधर्मदेवोत्पत्तिनिरूपणम् ४८१ TYL 11 यथैवासुरकुमारेपृत्पद्यमानानां तथैत्र नवगमका भणितव्याः 'नवरं सोहम्मदेव ट्ठि संवेहं च जाणेज्जा' नवरं सौवपदेवस्थिति तेषामेव कायसंवेधं च भिन्नभिन्न- " रूपेण स्वस्वभवमाश्रित्य जानीयात् 'सेसं तं चेत्र' शेषं तदेवेति ९ । 'ईसाणदेवा" भंते ।' ईशान देवाः खल्ल मदन्त ! 'कमोदितो उपज्जंति' कुतः कस्मात् स्थान विशेषादागत्योत्पद्यन्ते 'ईसागदेवाणं एस चैव सोहम्म देवसरिसा वत्तन्वया' ईशानं-' कदेवानाम् एषैव सौधर्मदेवसदृशी वक्तव्यता, यथा सौधर्मदेवानामुपादादिका निरूपिताः तादृशा एवं उत्पादादिकाः ईशानकदेवमकरणेऽपि वक्तव्याः । 'नवरं गौतम ! जिस प्रकार से असुरकुनारों में उत्पद्यमान संख्यातवर्षायुष्कसंजी मनुष्यों के नौ गमक कहे गये हैं उसी प्रकार से सौधर्मदेव लोक में उत्पद्यमान इन संख्यातवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों के सम्बन्ध में भी नौ न कह देना चाहिये । परन्तु 'नवरं सोहम्मदेवहि संवेहं च जाणेज्जा' यहां सौधर्मदेव की स्थिति और कायसंवेध भिन्न भिन्न रूप से अपने अपने भव को आश्रित करके कहना चाहिये 'सेसं तं 'वेद' बाकी के अवशिष्ट द्वारों को कथन पहिले जैसा ही समझना चाहिये । अष गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं--ईसाणदेवा णं भते ! कओ - हितो उवति' हे भदन्त । ईशानदेव कहां से आकरके उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'ईसाणदेवाणं एस चेव सोहम्मदेव सरिसा ' हे गौतम! ईशान देवों के सम्बन्ध में जैसी वक्तव्यता सौधर्मदेवों की अभी २ ऊपर प्रकट की गई है वैसी ही है । પ્રમાણે અસુરકુમારેમાં ઉત્પન્ન થનારા સખ્યાત વની આયુષ્યવાળા સંજ્ઞી મનુષ્ય સમધી નવ ગમા કહ્યા છે, એજ રીતે સૌધમ દેવલેકમાં ઉત્પન્ન થનારા આ સખ્યાત વષઁની આયુષ્યવાળા સંજ્ઞી મનુષ્ચાના સબધમાં પણ नव गभेो अहेवाले थे. परंतु 'नवरं सोहम्मदेवट्टिई संदेह च जाणेज्जा' અહિયાં સૌધમ દેવની સ્થિતિ અને કાયસ વેધ જુદા જુદા રૂપથી પાતપેાતાના अवने आश्रित उरीने वां हो. 'सेसं तं चेव' माडीना जीन द्वारा સ'ખ'ધી કથન પહેલા પ્રમાણે જ સમજવુ* જોઈ એ हवे गौतमस्वाभी अलुने मे पूछे छे है- 'ईसाणदेवा णं भवे । कओहितो ! उववज्जंति' हे भगवन् प्रशानदेव ज्यांथी भावाने उत्पन्न थाय छें? साप्रश्नना उत्तरमां अलु डे छे है-इसाणदेवाण पख चैव सोहम्मदेव परिसा वत्तन्वया' हे गौतम! शिानहेवाना समधभां ने प्रभाषेनुं स्थन, सौधर्भ દેવાનું હમણાં ઉપર પ્રગટ કર્યું છે, એજ પ્રમાણેનુ' છે. અર્થાત્ જે પ્રમાણૅ भ० ६१
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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