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________________ भगवती सूत्रे ૪૮ 1 'उकोसेण चि तिन्नि लियोबनाइ' 'उत्कर्षेणापि स्थितिस्त्रीणि पल्योपमानि जघ न्योत्कृष्टाभ्यां पल्योपमत्रयममाणा स्थितिः सप्तमगमे इत्यर्थः । ' एवं अणुवंचो वि' एवं स्थितिदेव जघन्योत्कृष्टाभ्यां त्रिपल्योपमप्रमाणोऽनुवन्धोऽपि भवतीति । 'सेयं तं चैव' शेषं स्थित्यनुबन्धाभ्यामतिरिक्तं सर्वमपि तदेव भधिकगमवदेवेति । ' एवं पच्छिमा तिन्नि गमगा णेयच्या' एवं पूर्वपदर्शितक्रमेग पश्चिमा अन्तिमाः सप्तमाष्टममात्र गपका नेतव्याः - ज्ञातव्या 'नवरं ठिई संवेदं च जाणेज्जा' नवरम् - केवलं स्थिति संवेधं च परस्परं भिन्नभिन्नं जानीयात् तथाहि सप्तमादिगमेषु यौगलिकतिरश्च एका उत्कृष्टेव जलपोपलक्षमा स्थितिर्भवति, ज्योतिष्कस्य तुं सप्तमे गये द्विविधा जघन्योत्कृष्टा स्थितिः पतीतैत्र । अष्टमे गमे पल्पोपमाष्टभागरूपा । है तथा 'कोसेण वि तिनि पलिओमाई' उत्कृष्ट से भी वह तीन परपोषम की है । तात्पर्य यही है कि इस सप्तम गम में स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट से तीन पल्पोपम की है और 'एवं अणुबंधो वि' अनु. बंध भी स्थिति के जैसा ही जवन्य और उत्कृष्ट से तीन पल्योपमका | 'सेस तं चेव' स्थिति और अनुबंध से अतिरिक्त अन्य सब द्वारों का कथन इस सप्तमगम में अधिक गम के अनुरूप ही है । 'एवं पच्छिमा तिनिगममा वना' ही प्रदर्शित क्रम के अनुसार अन्तिम जो गंम हैं ७ वें, ८वें और ९वे गम हैं-वे भी समझ लेना चाहिये । 'नवरं ठिङ्ग संवेह च जाणेज्जा' परन्तु इन नामों में स्थिति और काय संवैध का कथन परस्पर से भिन्न भिन्न रूप से है । जैसे-सप्तम आदि गमों में युगलिक तिर्यञ्च की एक उत्कृष्ट ही तीन पत्योम की स्थिति होती पलिओ माइ उद्धृष्टथी पथ ते त्रयस्योपमनी छे. मुंडेवानुं तात्पर्य में छे કે-આ સાતમા ગમમાં સ્થિતિ જઘન્યથી અને ઉત્કૃષ્ટથી ત્રજી પલ્યેાપમની જં छे भने 'एवं अणुत्रधो वि' अनुगंध पशु स्थितिनी उथन अभ ४ धन्य अने उत्सृष्टथी बु पोपमा छे. 'सेस तं चेव' स्थिति भने अनुसंध શિવાય ખીજા સઘળા દ્વારાનુ કથન મા સાતમાં ગમમાં ઔઘિક ગમના કથન असा 'एवं पच्छिमा तिन्ति गमगा णेयव्त्रा' या मतावेस भ પ્રમાણે છેલ્લા જે ત્રણ ગમે છે એટલે કે ૭ સાતમા ૮ આઠમા અને नवभो गम छे. ते पशु सम सेवा 'नवरं ठिइ' संवेद्द' च जाणेज्जा' પરંતુ આ ગમેામાં સ્થિતિ અને કાયસ વેધનું કથન એક ખીજાથી જુદું જુદું छे. प्रेम हे सातभा विगेरे गभाभां युगबिङ तिर्ययनी उत्सृष्टथी त्र પત્ચાપમની સ્થિતિ ડાય છે, પરંતુ ચૈાતિ કેાની સાતમા ગમમાં જાન્ય J
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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