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________________ 15 ४१९ प्रमेयद्रिका टीका २०२४ उ. २२ ०१ वानभ्यन्तरेषु जीवानामुत्पत्तिः कियत्पर्यन्तं नागकुमारप्रकरणोक्तमिहानुसंधेयं ? वत्राह - 'जाव' यावत् परिमाण - द्वारादारभ्य कार्यसंवेधस्य भवादेशपर्यन्तं नागकुमारप्रकरण मेवात्रापत्यमिति, कोला देशमपेक्षवाह - 'काला देसेणं' इत्यादि । 'कालादेसेणं जन्मे साविरेगा। पुडी दस वाससस्सेहिं अमहिया' काळा देशेन जघन्येन सातिरेका पूर्व: कोटि भर्वधिका 'उकोसेणं चचारि पलियोमाइ' उत्कर्षेण चत्वारि परयोपमानि तत्र त्रिपल्योपपायुकः संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः परयोपमायुर्थ - न्तरेत्पन्नः इत्येव क्रमेण चत्वारि पल्पोपमानि उत्कृष्टतः कालादेशेन काय संवेधो भवतीति 'एवइयं जात्र करेज्ना' एतावन्तं यावत् कुर्यात् एतावन्तं कालं संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्गतिं वानव्यन्तरगतिं च सेवेत, तथा एतत्र देव कालपर्यन्तं पञ्चेन्द्रियतिर्य-: गौ वानव्यन्तरगतौ च गमनागमने कुर्यादिति प्रयमो नमः ॥ १॥ ६ 闫 माण आदि द्वार वैसे ही कहना चाहिये जैसे वे नागकुमारोदेशक में कहे गये हैं । यह नागकुमारोदेशक गत पाठ यहां यावत् परिमाण द्वार से लेकर कायसंवे के भनादेश तर्क का ग्रहण करना चाहिये आगे का नहीं क्यों कि 'कालादेसेणं जहन्नेणं सातिरेगा पुच्चेकोडी दसहिं वास सहस्सेहिं अभरिया' काल की अपेक्षा जघन्य से कायसंवेध दश हजार वर्ष अधिक सातिरेक एक पूर्वकोटि का है और 'उक्कोसेणं चत्तारि पलिओमाई' उत्कृष्ट से वह चार पत्थोपम की है। क्योंकि तीन पोषम की आयु वाला. संज्ञी पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीव पल्घोपम की आयुवाले व्यत्तरों में उत्पन्न हो जाता है। इस क्रम से चार पत्योपम का उत्कृष्ट काल कायसंवेध का कहा गया है। 'एवज्ञेयं जाव करेज्जा' इस प्रकार से इतने काल तक वह जीव असंख्यातवर्ष की आयुव संज्ञी पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गति का और वानव्यन्तरगति का सेवन करता है પ્રમાણે કહેવું જોઈએ કે જે પ્રમાણે 'તેઓના સંબંધમાં નાગકુમારના ઉદ્દે શામાં કહેવામાં આવ્યુ છે આ નાગકુમારના ઉદ્દેશા સબંધી પાઠ અહિયાં યાવત્ પરિમાણુ દ્વારથી લઈ ને કાયંસ વેધના ભવદેશ સુધીનુ કથત બ્રહણુ કરવું लेह सागज डि भि - 'काल/देसेणं जहन्नेणं सातिरेगा पुेवकोडी दहिं वासहस्सेहिं 'अच्महिया' अंजनी अपेक्षाथी धन्यथा अर्थस वैध हस उन्तरं वर्ष अधि सातिरे मे पूर्व अटिनी छे भने 'उक्कोसेणं चचारि पलिओ माइ " उत्सृष्टथी ते सार यहयोभना छे. ययेोयभनी આયુષ્યવાળા સ’શી પંચેન્દ્રિય તિય ચ જીવ પથેામની આયુષ્યવાળી વ્યક્ત રામાં 'ઉત્પન્ન થઈ જાય છે `આ'ક્રમથી ચાર પચેાપમના ઉત્કૃષ્ટકાળ કાય सवेर्धन! ४ह्यो' छे, 'एवईय जाव 'करेज्जा' भारी आरसा आज सुधी ते અસંખ્યાતવર્ષ ની આયુવાળા સ'ની 'પ'ચેન્દ્રિય તિયચ ગતિનું અને વાનષ્યન્તર 3 itx
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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