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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२१ सू०२ आनतादिदेवेभ्यः मनुष्येपूत्पत्तिः ३९५ स्पत्तुम् ‘से णं भंते ! केवइयकालटिइएसु उववज्जेज्जा' स खलु भदन्त ! कियका. लस्थितिकमनुष्येपु उत्पद्यतेवि प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि। 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं वासपुहुत्तटिइएसु' जघन्येन वर्पपृथक्त्वस्थितिकेषु मनुष्येषू त्पधेत, तथा-'उक्कोसेणं पुन्चकोडीठिइएमु उवयज्जेज्जा उत्कर्षेण पूर्वकोटिस्थितिकेपु मनुष्येषु उत्पघेत, इति । 'अव से सं जहा आणयदेवस्स बत्तव्यया' अवशेषमुस्पादातिरिक्तं परिमाणादारभ्य कायसंवेधान्तं सर्वम् यथा आनतदेवस्य वक्तव्यता, आनतदेवाधिकारे यथा यथा कथितं तथैवेहापि सर्व मनुसन्धातव्यमिति अनंतदेवाधिकारे सहस्नारदेवस्यातिदेशः कृतः सहस्रारदेवाधिकारे च पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकस्यातिदेशो विद्यते अतः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाधिकारे यथा यथा परिमाणादिकं कथितम् तथैवात्रापि शेयमित्यर्थः। अन्यत्सर्वं पूर्वातिदेशेन ज्ञातव्यं उत्पन्न होने के योग्य है। 'लेणं अते ! केवहकालट्ठिएस्तु उववज्जेज्जा' वह कितने काल की स्थितिवाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ? इसके उत्सर में प्रभु कहते हैं 'गोयना' हे गौतम | 'जहन्नेणं वास हुत्तहिए' वह जघन्य से वर्षपृथक्त्व की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है और 'उक्कोसेणं' उत्कृष्ट से 'पुनकोडी लिइएस्तु' एक पूर्वकोटि की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है 'अक्सेसं जहा आणयदेवस्से पत्तव्वया' उत्पाद से अतिरिक्त और सब परिमाण से लेकर कायसं. वेध तक के द्वारों का कथन आनतदेव की वक्तव्यता के अनुसार जानना चाहिये। आमतदेवाधिकार में सहस्त्रार देवाधिकार का अतिदेश किया गया है और सहस्रार देवाधिकार में पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक का अतिदेश किया गया है। अतः पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाधिकार में जैसा २ परिमाण आदि कहा गया है उसी प्रकार से वह सब यहां पर भी थपाने येय छ, 'खे णं भंते ! केवइयकालदिइएसु उववज्जेज्जा' ते मानी સ્થિતિવાળા મનુષ્યોમાં ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે है-गोयमा !' है गौतम !' 'जहन्नेणं वासपुहुत्तट्टिइएसु' धन्यथी वर्ष थपनी स्थितिवाण मनुष्योमा ५न्न थाय छे. 'अवसेस जहा आणयदेवरस बत्तव्वया' पानी इथन शिवाय परिभा विश्थी मारलीन अयसवर्थ સુધીના સઘળા દ્વારો સંબંધી કથન આનદેવના કથન પ્રમાણે સમજવું. આનતદેવના અધિકારમાં સહસ્ત્રાર દેવના અધિકારનો અતિદેશ (ભલામણ) કરેલ છે. અને સહસ્ત્રાર દેવના અધિકારમાં પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ ચેનિકે અતિદેશ કરેલ છે જેથી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ ચેનિકના અધિકારમાં જે જે પ્રમાણે પરિમાણ વિગેરે કહેલ છે. એ જ પ્રમાણે તે સઘળું કથન અહિયાં પણ
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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