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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२० १०३ तिर्यग्भ्यः ति जीयोत्पत्यादिकम् २७५ अप्पणा उनकोसकालेष्टिइभी जाओ' स एव असंज्ञिपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकजीत्र एव आत्मना-स्वयम् उत्कृष्टकालस्थितिको जातः तदा-'सच्चे पढमगम वत्तव्वया' सैव प्रथमगमवक्तव्यता, सप्तमगमो हि प्रथमर्गमवदेव ज्ञातव्य इत्ययः पर्थमगमापेक्षया सप्तमगमे यदंशे भेदो भवति तमेव दर्शयवाह-'नवरे' इत्यादि। 'नवरं ठिई जहन्नेणं पुषकोडी' नवरम्-केवलं सक्षमगमके स्थितिजघन्येन पूर्वकोटिप्रमाणा भवति 'उक्कोसेण वि पुषकोडी' उत्कणाऽपि स्थिति पूर्वकोटिं परिमितैव भवति 'सेस त चेव' शेषं-स्थित्यतिरिक्तं तदेव-प्रथम गमोक्तमेव भवगन्तव्यमिति। कार्यसंवेधमाह-कालादेसेणं जहन्नेण पुन्यकोटी अंतोमुहु सातवां गम इस प्रकार से है 'सोचेव अप्पणा उक्कोसकालटिपओ जाभो' जब वह असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव उत्कृष्ट कालको स्थिति वालो होकर उत्पन्न, होता है तष 'सच्चेव पढमगमवत्तव्यया' इस सप्तमगम के सम्बन्ध में प्रथम गम के जैसी वक्तव्यता कहलेनी चाहिये । परन्तु-प्रथमगम की अपेक्षा सप्तम गम में जिस अंश में भिन्नता है उसे सूत्रकार ने 'नवरं, ठिई जहन्नेण पुचकोडी उकोसेण वि पुवकोडी' इम सूत्रपाठ द्वारा प्रकट किया है। इसके द्वारा उन्होंने यह समझाया है कि इस ससम गम में केवल स्थिति जघन्य से पूर्वकोटि प्रमाण होती है और उस्कृष्ट से भी वह पूर्वकोटि प्रमाण ही होती है । 'सेसं तंचेव' इस प्रकार स्थिति द्वार की भिन्नता के सिवाय और सब द्वारों का कथन प्रथम गम में कहे गये दारों के जैसा ही है। कायसंवेध 'कालादेसेणं जहन्नेणं पुन्य. व सातमा भनु ४यन ४२पामा माछ.'मो चेव अप्पणा उक्कोमकालदिइओ जाओ' ल्यारे भी पये. ન્દ્રિય તિર્યંચનિવાળે જીવ ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિવાળા થઈને ઉત્પન્ન થાય छे. त्यारे 'सच्चेव पढमगमवत्तव्वया' मा सातमा गम समधी पडे। ગમમાં જે પ્રમાણે કથન કર્યું છે, તે પ્રમાણેનું કથન સમજી લેવું, પહેલાં म ४२di सातमा गममा २ अशमा ५ छ, तर सूत्रारे 'नवर ठिई जहन्नेणं पुनकोडी उन्कोसेण वि पुषकोडी' मा सूत्रा6 दास तेमाने એ સમજાવ્યું છે કે-આ સાતમા ગમમાં કેવળ સ્થિતિ જઘન્યથી પૂર્વકેટિ प्रमाणुन छ, भने यी ५ ते पूर्व प्रमायुनील छे. 'सेसं तं चेव' આ પ્રમાણે સ્થિતિદ્વારને જુદાપણું શિવાય બીજા સઘળા દ્વારેનું કથન પહેલા गमभा x वासना ४थन प्रमाणे । छ, यव५ 'कालादेसेण जहणे
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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