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________________ भगवतीसरे यानि, अत्र तु संख्येयानि भवन्ति, 'एवइयं जाव करेजा' एतावन्तं कालं यावस्कुर्यात् एतावत्कालपर्यन्तं पृथिवीगति हीन्द्रियगति व सेवेत तथा एतावत्कालपर्यन्तमेव पृथिवीगतौ द्वीन्द्रियगतौ च गमनागमने 'कुर्यादिति। 'एवं तेसु चेव चउसु गमएमु संवे' एवम् येन प्रकारेण पृथिवीकायिकैः सह द्वीन्द्रियस्य काय. संवेधः प्रथमे गमे कथितस्तेनैव प्रकारेण तेष्वेव द्वीन्द्रियसंबन्धिष्वेव चतुर्पु गमकेषु प्रथममधिकृत्य द्वितीयचतुर्थपञ्चपलक्षणेषु संवेध:- कायसंवेधो वक्तव्यः उत्कर्ष तो भवादेशेन संख्येया भवा इति । तथा-'से सेमु पंचम तहेत्र अट्टमवा' शेपेषु पञ्चसु गमकेषु तृतीयपष्ठसप्तमाष्टमनवमलक्षणेषु तथैव पूर्वोक्तप्रकारेणैव, अष्टौ भवा वक्तव्याः, भवादेशेन-उत्कर्पतोऽभवग्रहणानि वक्तव्यानि । 'एवं जाव चउरिदिएणं समं एवं यावच्चतुरिन्द्रियेण समम्-एवं यथा पृथिवीकायिकेन भवों को ग्रहण करने रूप ही जानना चाहिए। पृथिवीकायिक सूत्रोक्त के जैसे असंख्यात भथ ग्रहण करने रूप नहीं । इस प्रकार से वह पृथिवीझायिक जीव पृथिवीकायिकगति का और द्वीन्द्रिय गति का इतने काल तक सेवन करता है और इतने ही काल तक वह उसमें गमनागमन करता है । 'एवं तेस्तु चेव चउसु गमएस्सु संवेहो' जिस प्रकार ये पृथिवीकायिकों के साथ हीन्द्रिय का कायसंवेध, प्रथमगममें कहा गया है उसी प्रकार से प्रथम, को लेकर द्वितीय, चतुर्थ और पंचम इन गमों में वह कायसंवेध कह लेना चाहिये, अर्थात उत्कर्ष से भवादेशकी अपेक्षा संख्यात भव रूप कायसंवेध होना है। तथा-'सेसेसु पंचसु लहेच अट्ट भवा' शेष पांच गमों में तृतीय, पष्ठ सप्तम, अष्टम और नवन इन गमों में वह पूर्वोक्त प्रकार से उस्कृष्ट आठसयों को ग्रहण करने रूप कायसंवेध કહ્યા પ્રમાણે અસંખ્યાત ભવ ગ્રહણ કરવા રૂપ સમજવું નહિ આ રીતે તે પૃથ્વી કાયિક જીવ પૃથ્વિકીય ગતિનું અને બે ઈદ્રિય ગતિનું આટલા કાળ સુધી સેવન छ. मन मेट सुधा ते तेभ गमनागमन ३ छ. 'एवं तेसु घेव चउसु गमत्सु सवेहो' रेश मा पृथ्वीविधीनी साथै मेद्रियाना કાયસંધ પ્રથમ ગમમાં કહેલ છે, એજ રીતે પહેલા, બીજા, ચોથા અને भायमा मामा त यसवेध सभ देन. तथा 'सेसेसु पंचसु तहेव भट्रभवा' ५ श्रीना पाय गमीमा मे बीत, ७४, सातमा, महमा भने नमा કામમાં તે પૂર્વોક્ત પ્રકારથી ઉત્કૃષ્ટ આઠ કાને ગ્રહણ કરવા રૂપ કાયસંવેધ समान मे. 'एवं जाव चारिदिएण सम' पृथ्वी यिनी साथै मेद्रियाणा
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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