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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१२ सु०६ नागकुमारेभ्यः समुत्पातादिनि० १४९ द्वे पल्योपमे, देशोनद्विपल्योपमात्मिका उन्कृष्टतः स्थितिः पूर्वपकरणे जघन्यतो 'दशवर्ष सहस्रामिका उस्कृष्टतो देशोनद्विपल्पोपमा स्थितिरिति भवत्येव पूर्वापेक्षा वैलक्षण्यमिति । एवं अणुबंधो वि' एवं स्थितियदेव अनुबन्धोऽपि जघन्येन दशवर्षसहसात्मका, उत्कृष्टतो देशोनद्विएलपोपमात्मक इति कायसंवेधस्तु भवापेक्षया पूर्वमकरणवदेव द्विभनग्रहणप्रमाणका, 'कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तममहियाई' कालादेशेन-कालापेक्षया जघन्येन दशवर्षसहस्राणि अन्तमुहूर्ताभ्यधिकानि 'उक्कोसेणं देवगाइं दो पलिओवमाई बावीसाए वाससहस्सेहि अब्भहियाई उत्कर्षेण देशोने द्विपल्योपमे द्वाविंशत्या वर्ष सहसैरभ्यधिके, काला. पेक्षया जघन्यतोऽन्तमुहूर्ताभ्यधिकद राव सहस्त्रात्मकः कायसंवेधा, उत्कृष्टतो द्वाविंशतिवर्ष सहस्त्राधिकदेशोनद्विपल्योपमात्मकः कायसंवेध इति भावः ।। 'एवं देमूणाई दो पलिओपमाई' इत्यादि सूत्रपाठ द्वारा प्रकट करते हैं-इससे उन्होंने यह कहा है कि नागकुमारों की स्थिति जघन्य से दश हजार वर्ष की है पर उस्कृष्ट से वह कुछ कन दो पल्योपम की है, पूर्व प्रकरण में यदपि जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है, पर उत्कृष्ट स्थिति सातिरेक सागरोपम की कही गई है, पर यहां ऐसी नहीं कही गई है, यहां तो वह जघन्य दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट कुछ कम दो पल्योपम की कही गई है। 'एवं अनुबंधो वि' स्थिति के जैसा ही यहां अनुबन्ध है। तथा कायसंवेध भकशी अपेक्षा पूर्व प्रकरण के जैसे ही दो भवों को ग्रहण करने रूप है, एवं काल की अपेक्षा यह जघन्य से, एक अन्तर्मुहूर्त अधिक दश हजार वर्ष का है और उत्कृष्ट से २२ हजार वर्ष अधिक देशोन दिपल्योपमात्मक है, 'ठिई जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाइ' त्याल સૂત્ર પાઠથી બતાવેલ છે. આ સૂત્રથી તેઓએ એ સમજાવ્યું છે કે-નાગકુમા ની સ્થિતિ જઘન્યથી દસ હજાર વર્ષની છે. પરંતુ ઉત્કૃષ્ટથી તે કંઈક ઓછી બે પાપમની છે. પહેલાના પ્રકરણમાં જે કે જઘન્ય સ્થિતિ દસ હજાર વર્ષની કહેવામાં આવી છે. પરંતુ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાતિરેક કંઈક વધારે સાગરોપમની કહી છે પરંતુ અહિયાં તે પ્રમાણે કહ્યું નથી. અહિયાં તો તે જઘન્યથી દસ હજાર વર્ષની અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક ઓછી બે પલ્યોપમની કહી छ. 'एवं अणुबंधो चि' स्थितिना ४थन प्रमाणे माडियां मनुम धनु अथन पy સમજવું તથા કાયસંવેધ ભવની અપેક્ષાથી પહેલા પ્રકરણ પ્રમાણે જ છે. એટલે કે ભવની અપેક્ષાથી બે ભને ગ્રહણ કરવા રૂપ છે. અને કાળની અપેક્ષાથી તે જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂર્તી અધિક દસ
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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